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________________ 38 / प्राकृत कथा - साहित्य परिशीलन मिश्रितकथा । इन में प्रत्येक कथा के अनेक भेद प्राप्त होते हैं। यथा अत्थकहा कामकहा धम्मकहा चेव मीसिया य कहा ।. एत्तो एक्केक्कावि य णेगविहा होई नायत्वा ।। - दश. हरि वृ. गाथा 188, पृ. 212 अर्थकथा - विषय की दृष्टि से वर्गीकृत कथाओं के इन भेदों का स्वरूप प्राकृत कथाकारों ने स्पष्ट किया है । दशवैकालिकवृत्ति में कहा गया है कि जिस कथा में विद्या, शिल्प, अर्थोपार्जन के लिए विभिन्न उपाय अर्थसंचय के लिए कुशलता, साम, दण्ड और भेद आदि का वर्णन तथा विभिन्न प्रकार के व्यंग्य इत्यादि किये गए हों वह कथा अर्थकथा कहलाती है। समराइच्चकहा में अर्थप्राप्ति के विभिन्न साधनों का निरुपण करने वाली कथा को अर्थकथा कहा गया है। इन दोनों उल्लेखों से स्पष्ट है कि अर्थकथा में आर्थिक और राजनीतिक जीवन का घटनाचक्र रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। कामकथा - हरिभद्रसूरि का कथान है कि रूप-सौन्दर्य, युवावस्था, वेशभूषा. चतुरता, विभिन्न विषयों की शिक्षा, देखे गए सुने गए और अनुभव में आए विभिन्न विषयों का परिचय प्रस्तुत करने वाली कामकथा है। यथा रूवं वओ य वेसो दक्ख्त्तं सिक्खियं च विसएसु । दिठ्ठं सुयमणुभूयं च संथवो घेव कामकहा ।। - दश. गाथा. 192, पृ. 218 समराइच्चकहा में इसे और स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि रूप-सौंदर्य के अतिरिक्त यौन समस्याओं का विश्लेषण, अनुराग, प्रेम व्यापार, भावना, मिलन एवं विरह आदि का रोचक वर्णन कामकथाओं में किया जाता है। इन्हीं कामकथाओं से प्रेमकथाओं का विस्तार प्राकृत कथाओं में देखने को मिलता है। सौन्दर्य चित्रण एवं प्रकृति-चित्रण आदि के वर्णन भी कामकथाओं में प्राप्त होते हैं। धर्मकथा - धर्म से सम्बन्धित विषयों का निरूपण करने वाली कथा धर्मकथा कहलाती है। जैन धर्म में धर्म के जो दशलक्षण कहे गए हैं और गृहस्थ धर्म का जो निरूपण किया गया है उसी के आधार पर हरिभद्रसूरि ने कहा है कि जिस कथा में क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दस धर्मों, अणुव्रतों, देशव्रतों और शिक्षाव्रतों आदि का बहुलता से वर्णन हो वह धर्मकथा है।' उद्योतनसूरि ने नाना जीवों के विभिन्न प्रकार के भाव-विभाव का निरूपण करने वाली कथा को धर्मकथा कहा है।" आचार्य जिनसेन ने धर्मकथा को सात अंगों में सुशोभित नारी के समान सुंदर और सरस कथा कहा है। इस प्रकार धर्मकथा नैतिक और आध्यात्मिक जीवन को चित्रित करने वाली होती है । दशवैकालिकवृत्ति में कहा गया है कि चार प्रकार के पुरुषार्थों से युक्त धर्मकथा के चार भेद हैं- आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेगनी और निर्वेदिनी ।7 आक्षेपिणी कथा में जीवन के लोकव्यवहार, प्रायश्चित, संशय का निराकरण और सूक्ष्म विषयों का निरूपण किया जाता है। आक्षेपिणी कथा प्रभाव उत्पन्न करने वाली कथा होती है जो श्रोता के मन के अनुकूल होती है। विक्षेपिणी कथा में दूसरे के मत, विचारधारा, सिद्धान्त आदि में दोष दिखा कर अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जाता है। अतः यह कथा मन के प्रतिकूल भी हो सकती है। संवेगनी कथा का उद्देश्य अंत में वैराग्य उत्पन्न करना होता है। अतः यह कथा क्रोध, मान, माया, लोभ आदि मनोविकारों के दोष दिखाकर इनके प्रति वैराग्य उत्पन्न कराती है। निर्वेदिनी कथा संसार के प्रति आसक्ति का त्याग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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