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________________ 6/प्राकृत कथा-साहित्य परिशीलन पुण्डरीक एवं पुण्डरीक कथा (५), कल्पना-प्रधान कथाएँ है। ज्ञाताधर्मकथा में दृष्टान्त और रूपक कथाएँ भी है। मयूरो के अण्डों के दृष्टान्त से श्रद्धा और संशय के फल को प्रकट किया गया है ( 3 )। दो कछुओं के उदाहरण से संयमी और असंयमी साधक के परिणामों को उपस्थित किया गया है ( 4 ) ! तुम्जे के दृष्टान्त से कर्मवाद को स्पष्ट किया गया है ( 6 ) । चन्द्रमा के उदाहरण से आत्मा की ज्योति की स्थिति स्पष्ट की गयी है (103) दावद्रव नामक वृक्ष के उदाहरण द्वारा आराधक और विराधक के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है ( 11 )। ये दृष्टान्त कथाएँ परवर्ती कथा साहित्य के लिए प्रेरणा प्रदान करती हैं। इनकी मौलिकता असंदिग्ध है। इस ग्रन्थ में कुछ रूपक कथाएँ भी हैं।30 दूसरे अध्ययन की कथा धन्ना सार्थवाह एवं विजय चोर की कथा है। यह आत्मा और शरीर के सम्बन्ध में रूपक है ( 2 ) । सातवें अध्ययन की रोहिणी कथा पाँच व्रतों की रक्षा और वृद्धि को रूपक द्वारा प्रस्तुत करती है। उदकजात नामक कथा संक्षिप्त है किन्तु इसमें जल शुद्धि की प्रक्रिया द्वारा एक ही पदार्थ के शुभ एव अशुभ दोनों रूपों को प्रकट किया गया है। अनेकान्त के सिद्धान्त को समझाने के लिए यह बहुत उपयोगी कथा है (12) नन्दीफल की कथा यद्यपि अर्थ कथा है किन्तु इसमें रूपक की प्रधानता है। धर्मगुरु के उपदेशों के प्रति आस्था रखने का स्वर इस कथा से तीव्र हुआ है ( 15 ) । समुद्री अश्वों के स्पक द्वारा लुभावने विषयों के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है (17)। ज्ञाताधर्मकथा पशु कथाओं के लिए भी उद्गम ग्रन्थ माना जा सकता है। इस एक ही ग्रन्थ में हाथी, अश्व, खरगोश, कछुए, मयूर, मेंढ़क, सियार आदि को कथाओं के पात्र के रूप में चित्रित किया गया है। मेरुप्रभ हाथी ने अहिंसा का जो उदाहरण प्रस्तुत किया है, वह भारतीय कथासाहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है। ज्ञाताधर्मकथा के द्वितीय श्रुतस्कंध में यद्यपि 206 साध्वियों की कथाएँ हैं। किन्तु उनके ढाँचे, नाम, उपदेश आदि एक से हैं। केवल काली की कथा पूर्ण कथा है। नारी-कथा की दृष्टि से यह कथा महत्वपूर्ण है। उपासकदशांगउपासकदशांग में महावीर के प्रमुख श्रावकों का जीवन-चरित्र वर्णित है।31 इन कथाओं में यद्यपि वर्णकों का प्रयोग है फिर भी प्रत्येक कथा का स्वतन्त्र महत्व भी है। व्रतों के पालन में अथवा धर्म की आराधना में उपस्थित होने वाले विघ्नों, समस्याओं का सामना साधक कैसे करे इसको प्रतिपादित करना ही इन कथाओं का मुख्य प्रतिपाद्य है। कथा-तत्वों का बाहुल्य न होते हुए भी इन कथाओं के वर्णन पाठक को आकर्षित करते हैं। समाज एवं संस्कृति विषयक सामग्री उवासगदसाओं की कथाओं में पर्याप्त हैं।32 ये कथाएँ आज भी श्रावक-धर्म के उपासकों के लिए आर्दश बनी हैं। किन्तु उन श्रावकों की साधना-पद्धति के प्रति पाठकों का आकर्षण कम है, उनकी वर्णित समृद्धि के प्रति उनका अधिक लगाव है। अन्तकृदशासूत्रजन्म-मरण की परम्परा का अपनी साधना से अन्त कर देने वाले दश व्यक्तियों की कथाओं का इसमें वर्णन होने से इस ग्रन्थ को अन्तकृदशांग कहा है।33 इस ग्रन्थ में वर्णित कुछ कथाओं का सम्बन्ध अरिष्टनेमि और कृष्ण-वासुदेव के युग से है। गजसुकुमाल की कथा लौकिक कथा के अनुरूप विकसित हुई है। द्वारिका नगरी के विनाश का वर्णन कथा-यात्रा में कौतूहल तत्व का प्रेरक है। ग्रन्थ के अन्तिम तीन वर्गों की कथाओं का सम्बन्ध महावीर तथा राजा श्रेणिक के साथ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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