________________
प्राकृत भारती
पवट्टए चावमहं ति कोदुअं णिवट्टए वंचण-साहणं ति तं । दुहा वले भादर भाव-बंधणं मह त्ति तं जंपइ रोहिणी-सुओ ॥२७॥ इदं वओ भण्णइ वण्णमालिणा अलं कवित्थेण पलंब-सूअण । अकज्ज-सज्जाण हि सत्तु-संभवो कुदो भअंकज्ज-पहुम्मुहाण णो ॥२८॥ अह प्फुडं काहिइ साहसं जइ क्खअं सअंजाहिइ पाअडो जणो। समिद्धमग्गि गसिउ समुट्ठिओ ण डज्झए किं सलहाण संचओ ॥२९॥ विसुद्ध-सीले विमअ-च्छल-कमो ण को वि अम्हे छिविउ पअन्भइ । णहम्मि तारा-णिअरे समुज्जले णिसंधआरो मइलेइ किं भग ॥३०॥ भअ-प्पआवो भुअ-दप्पसालिणो रिवग मज्झे विअ संपआसइ ।। हिरण्ण-रेअस्स वि जाल-संचओ स समिधेइ किमिंधणं विणा ॥३१॥ वरं वएसग्ग-सरा णिराउला स-सिक्क-भंडा सअडाहिरोहिणो। समुच्चलामो सअला वि संपअं सहाजिओ होज्ज स भोअ-भूवई ॥३२॥ इआलवंतो सह सीर-पाणिणा रहं समारोहइ देवई-सुओ। करग्ग-संवग्गिअ-पग्गहो जवा स तस्स पट्ठिम्मि' अ गंदिणी-सुओ॥३३॥ सुहं रहम्मि च्चिअ हम्मिओवमे ससअंतो गमिऊण जामिणि ।। पगे समं सम्मिलिदेहि माह्वो स णंद-गोव-प्पमुहेहि पट्ठिओ ॥३४।। अहो समाअण्णिअ कण्ण-दूसहं पवास-वत्तं पदएस केउणो। गलुग्गलंतस्सु-जलुक्खदक्खरं विओअ-भीआ विलवंति गोविआ ॥३५।। अमुद्धअंदम्मि व संभु-मत्थए अकोत्थुहम्मि विवव विण्हु-वच्छए । अणंदए णंद-घरम्मि का सिरी हआ हआ हंत वअं वअंगणा ॥३६।। अणण्ण-णाहा अविहा विहाअ णे घिणं विणा झत्ति गए विदालुणे। तहिं जणे लग्गइ संपअंपि जं तमम्मकाणं खु मणं विणिदिअं ॥३७।। किमेत्थ अम्हे कुणिमो गुणुत्तरे जणे पिणद्ध जुवईण माणसं । ण तीरए चारु-पसूण-सोरहे महीरुहे भिंगउलं च कड्ढिउं ॥३८॥ पहाण-पाणाणि खु णो जणद्दणो स जेण दूरं गमिओ दुरप्पणा । कअंत-दूओ च्चिअ सो समागओ ण कंस-दूओ त्ति मुणेह गोविआ ॥३९।। इमाहि कूरो ण परो त्ति से कआ अवस्समक्करअ-सह-पक्किआ। अघोर-सदं जह घोर-मुत्तिणो सिवस्स वक्खाइ तह त्ति मण्णिमो ॥४०॥ हरिस्स रूवं चिअ संभरेह हो हरिम्मणी-सामल-कोमल-प्पहं । सिणिद्ध केसंचिअ-मोर-पिंछिअं विसट्ट-कंदोट्ट-विसाल-लोअणं ॥४१॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org