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प्राकृत भाषा एवं साहित्य
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किन्तु इसमें जल शुद्धि की प्रक्रिया द्वारा एक ही पदार्थ के शुभ एवं अशुभ दोनों रूपों को प्रकट किया गया है । अनेकान्त के सिद्धान्त को समझाने के लिए यह बहुत उपयोगी कथा है । नन्दीफल की कथा यद्यपि अर्थ कथा है । किन्तु इसमें रूपक की प्रधानता है । धर्म गुरु के उपदेशों के प्रति आस्था रखने का स्वर इस कथा से तीव्र हुआ है । समुद्री अश्वों के रूपक द्वारा लुभावने विषयों के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है ।
ज्ञाताधर्मकथा पशुकथाओं के लिए भी उद्गम ग्रन्थ माना जा सकता है | इस एक ही ग्रन्थ में हाथी, अश्व, खरगोश, कछुए, मयूर, मेंढक, सियार आदि को कथाओं के पात्रों के रूप में चित्रित किया गया है । मेरुप्रभ हाथी ने अहिंसा का जो उदाहरण प्रस्तुत किया है, यह भारतीय कथा साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है । ज्ञाताधर्मकथा के द्वितीय श्रुतस्कंध में यद्यपि २०६ साध्वियों की कथाएँ हैं । किन्तु उनके ढाँचे, नाम, उपदेश आदि एक-से हैं । केवल काली की कथा पूर्णकथा है। नारी कथा की दृष्टि से यह कथा महत्त्वपूर्ण है ।
उपासक दशांग - उपासकदशांग में महावर के प्रमुख दस श्रावकों का जीवनचरित वर्णित है । इन कथाओं में यद्यपि वर्णकों का प्रयोग है फिर भी प्रत्येक कथा का स्वतन्त्र महत्त्व भी है । व्रतों के पालन में अथवा धर्म की आराधना में उपस्थित होने वाले विघ्नों, समस्याओं का सामना साधक कैसे करे, इसको प्रतिपादित करना ही इन कथाओं का मुख्य प्रतिपाद्य है । कथातत्त्वों का बाहुल्य न होते हुए भी इन कथाओं के वर्णन पाठक को आकर्षित करते हैं । समाज एवं संस्कृति विषयक सामग्री उपासकदशांग की कथाओं में पर्याप्त है । किन्तु इन श्रावकों की साधना पद्धति के प्रति पाठकों का आकर्षण कम है, उसमें वर्णित समृद्धि के प्रति उनका अधिक लगाव है ।
अन्तकृत दशासूत्र - जन्म-मरण की परम्परा का अपने साधन से अन्त कर देने वाले दश व्यक्तियों की कथाओं का इसमें वर्णन होने से इस ग्रन्थ को अन्तकृतदशांग कहा गया है । इस ग्रन्थ में वर्णित कुछ कथाओं का सम्बन्ध अरिष्टनेमि और कृष्ण - वासुदेव के युग से है । गजसुकुमाल की कथा लौकिक कथा के अनुरूप विकसित हुई है । द्वारिका नगरी के विनाश का वर्णन कथा-यात्रा में कौतुहल तत्त्व का प्रेरक है । ग्रन्थ के अंतिम तीन वर्गों की कथाओं का सम्बन्ध महावीर तथा राजा श्रेणिक के साथ है। इनमें अर्जुन मालाकार की कथा तथा सुदर्शन सेठ की अवान्तर कथा ने पाठक का
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