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________________ कर्पूरमञ्जरी २२१. देवी—(चारों ओर देखकर) पैरों से पेंग देकर झूले में झुलती हुई और गाती हुई गोपाल वधुओं पर सूर्य की आँखें लग जाती है जिससे कि उनका रथ इधर-उधर बहकता हुआ चलता है । इसीलिए. दिन दीर्घ से दीर्घतर होते जाते हैं । (२०) (परदा हटाकर प्रवेश करते हुए) विदूषक -आसन, आसन । राजा - किसके लिए ? विदूषक - भैरवानन्द द्वार पर खड़े हैं- विराजेंगे । राजा - क्या वे जिनके विषय में लोग अत्यद्भुद सिद्धियों की चर्चा करते हैं ? विदूषक — हाँ, वे ही । राजा - अन्दर ले आओ । ( विदूषक बाहर जाता है और उसके साथ पुनः प्रवेश करता है) भैरवानन्द - (कुछ मद्यपान की-सी चेष्टा करते हुए) न मंत्र, न तंत्र और ज्ञान और गुरु की कृपा से ध्यान की भी कोई विशेष आवश्यकता नहीं है । हम लोग मदिरा पीते हैं, स्त्री-प्रसंग भी करते हैं और इस कौलों के धर्मानुसार चलते हुए. मोक्ष भी प्राप्त करते हैं (२१) और भी, कोई विधवा हो अथवा कोई अन्य प्रगल्भ रमणी तांत्रिक दीक्षा में दीक्षित हो जाने पर वह धर्मपत्नी ही है । खाने-पीने को मांस और मदिरा है - और ये सब भिक्षा के द्वारा उपलब्ध हो जाते हैं । सोने को चर्मखण्ड है । ऐसा कौलों का यह धर्म किसे अच्छा नहीं लगेगा ? (२२) ब्रह्मा और विष्णु आदि देवता ध्यान, के द्वारा मोक्ष प्राप्ति का उपदेश देते हैं, प्रेमी ने मोक्ष को सुरत- केलि और सुरा-रस के अभिन्न पाया है (२३) राजा - यह आसन है, भैरवानन्द ग्रहण करें । भैरवानन्द - ( बैठकर ) क्या करना है ? राजा - कुछ अद्भुत देखना चाहता हूँ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only वेद पाठ एवं यज्ञ केवल एक उमा के www.jainelibrary.org
SR No.003808
Book TitlePrakrit Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1991
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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