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________________ कर्पूरमञ्जरी २१९. विदूषक-(सक्रोध ) तो सीधे क्यों नहीं कहा जाय अत्युत्तमा विचक्षणा है और अत्यधम कपिजल ब्राह्मण, बस। विचक्षणा–आर्य कुपित न हों। आपका काव्य ही आपके कवित्व का राज खोलता है। क्योंकि अर्थ तो "निजकान्तारति" के कारण निन्दनीय है किन्तु आपकी वाणी सूकूमार है-जैसे किसी लम्बस्तनी के एकावली, तोंदवाली के चोली और कानी के काजल अच्छा नहीं लगता वैसे ही यह आपकी सुकुमार वाणी भी खूब अच्छी नहीं लगती है। विदूषक-अर्थ रमणीय होने पर भी तुम्हारी शब्दावली सुन्दर नहीं है। सोने के कटिसूत्र में लोहे को घंटियाँ, उल्टे कपड़े पर तसर का कशीदा और किसी शुभ्रानना पर चन्दनचर्चा सुन्दर नहीं लगती है। फिर भी सराहना तो तुम्हारी (ही) होती है। विचक्षणा–आर्य, आपके साथ मेरी प्रतिस्पर्धा कैसी ? नाराच की तरह निरक्षर होने पर भी आप रत्न तोलने के काम आते हैं और मैं लोह-तुलादंड की तरह साक्षर होने पर भी स्वर्ण तोलने के काम भी नहीं आती हूँ। विदूषक-(सक्रोध) यदि तुम इस तरह बोलती हो तो मैं तेरे युधिष्ठिर के ज्येष्ठ भाई के नाम पर जो अंग है वह बायाँ और दाहिना दोनों झटपट उखाड़ लूंगा। विचक्षणा तो मैं उत्तर फाल्गुनी के उपरान्त आने वाले नक्षत्र के नाम पर जो तुम्हारा अंग है वह तोड़ डालँगी। राजा-वयस्य, यह कवित्व से ओत-प्रोत है। विदूषक-तो सीधे क्यों नहीं कहा जाता है कि आपकी यह चेटी हरिवृद्ध, नंदिवृद्ध, पोट्टिस और हाल आदि के समक्ष भी सुकवि है उनसे बढ़कर है। राजा-ऐसा भी (कह सकते हो)। (विदूषक रूष्ट सा होकर क्रोधपूर्वक उठकर चल पड़ता है)। विचक्षणा-(हंसकर) महाराज, आप वहाँ जाइए जहाँ मेरी माँ की पहली साड़ी गई। विदूषक-(मुड़कर) तुम भी वहाँ जाओ, जहाँ मेरी माँ के दूध के दाँत गए। और भी, ऐसे राजकुल को दूर से नमस्कार है, जहाँ चेटी. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003808
Book TitlePrakrit Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1991
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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