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________________ २१८ प्राकृत भारती चेटी-( हंसकर ) तब तो तुम्हारा पाण्डित्य न मागत है। विदूषक-( सक्रोध ) अरी दासी की पुत्री, भविष्यकूटणी, निर्लक्षणे, अविचक्षणे ! क्या मैं ऐसा मूर्ख हूँ, कि तुम भी मेरा उपहास करो । और भी, अरी परपुत्रविट्टालिनी, भ्रमरटेण्टे, टेण्टाकराले, दुष्टसंघटिते अथवा हाथ-कंकण को आरसी क्या ? विचक्षणा-ठीक है । घोड़े की चाल क्या किसी साक्षी से पूछी जाती है, आओ, वसन्त का वर्णन करो। विदूषक-क्यों पिंजरे की मैना की तरह कुर-कुर कर रही हो । कुछ जानती तो हो नहीं । प्रिय वयस्य और देवी के समक्ष पढूंगा। कहा भी है, कस्तुरी गाँव में या वन में तो नहीं बेची जाती, स्वर्ण की परख तो कसौटी पर ही होती है। (पढ़ता है) ___ कमलदान चावल के भात जैसे शभ्र फलों के गुच्छों को धारण करने वाले सिंधुवार के पेड़ मेरे अत्यन्त ही प्रिय हैं और वे विचकिल के छोटे-छोटे फूल भी जो विलोए हुए महिषी-दधि के समान होते हैं । (१८) विचक्षणा-तुम्हारी वाणी से तो तुम्हारी प्रेयसी को (ही) रसानुभूति होगी। विदूषक-( सबों को रसानुभूति कराने वाली) उदारवचना कुछ तुम भी पढ़ो। देवी-( मुस्कुराकर ) सखि विचक्षणा, हम लोगों के बीच तुम खूब कवित्व का दम भरती हो। आज आर्यपुत्र के समक्ष अपनी कविता पढ़ो। कहा भी है--वही काव्य है, जो सभा में सुनाया जाए, वही स्वर्ण है जो कसोटी पर खरा उतरे, वही गृहिणी है जो पति का रंजन करे। विचक्षणा--जो देवी की आज्ञा । ( पढ़ती है) ___ संभोगखिन्न सपिणियों के फूले हुए फणों से कवलित जो मलयानिल क्षीण होकर लंकागिरिमेखला से स्खलित हो गया था वह अब विरहणियों के दीर्घ निःश्वास के सम्पर्क में आने से शैशव में ही अकस्मात् तारूण्यपूर्ण हो गया । ( १९) राजा-सचमुच विचक्षणा उक्त-चातुर्य में विचक्षणा है--तो किसी और वैचित्र्य की क्या आवश्यकता ? कवियों में सुकवि है । इसे "कविचूडामणि" कहना उचित होगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003808
Book TitlePrakrit Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1991
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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