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प्राकृत भारती
१०९. वहाँ ले जाकर खलजन उसकी आँखें निकाल लेते हैं, अथवा हाथ_पैर काट डालते हैं, अथवा जीता हुआ ही उसे शूली पर चढ़ा
देते हैं। ११०. इस प्रकार के इहलौकिक दुष्फलों को देखते हुए भी लोग चोरी से पराए
धन को ग्रहण करते हैं और अपने हित को कुछ भी नहीं समझते हैं।
यह बड़े आश्चर्य की बात है । हे भव्यो ! मोह के माहात्म्य को देखो। १११. परलोक में भी चोर चतुर्गतिरूप संसार-सागर में निमग्न होता हआ
अनन्त दुःख को पाता है, इसलिए चोरी का त्याग करना चाहिए ।
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