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________________ १८२ प्राकृत भारती ७०. अपने माता-पिता के दर्शन से उत्पन्न हुए प्रेम के भार से भरे हुए कुमार को वह अमरी / यक्षिणी केवलज्ञानी के पास बैठाती है । ७१. इसके अनन्तर केवली भी सभी तरह उसके उपकार के कारण को करते हैं । अमृत रस के सदृश आश्रयभूत अपने मत में धर्म की देशना करते हैं । ७२. जैसे सज्जन पुरुष मनुज भव को प्राप्त कर धर्म में प्रमाद का आचरण करता है वह प्राप्त हुए चिन्तामणि रत्न को, समुद्र में डुबो देता है । ७३. एक श्रेष्ठ नगर में कलाओं में कुशल कोई वणिक रहता था । वह रत्न परीक्षा के ग्रन्थ को गुरु के पास में अभ्यास करता है । ७४. सोगंधिक, कर्केतन, मरकत, गोमेद, इन्द्रनील, जलकान्त, सूर्यकान्त, मसारगल्य, अंक, स्फटिक इत्यादि । ७५. इन सभी रत्नों के लक्षण, गुण, रंग, नाम, गोत्र आदि सभी वह जान जाता है । मणि-परीक्षा में विचक्षण हो जाता है । ७६. इसके बाद एक दिन वह वणिक सोचता है कि इस तरह अन्य रत्नों से क्या लाभ? मणियों में शिरोमणि चिंतामणि रत्न सोचने मात्र से-धन को उत्पन्न करने वाला हो । ७७. तब उस वणिक ने चिन्तामणि रत्न के लिए अनेक स्थानों पर कई खदानें खोदीं । विविध उपायों के करने से भी वह मणि उसे नहीं मिली । ७८. किसी ने उससे कहा कि जहाज पर चढ़कर तुम रत्नद्वीप जाओ, तो वहाँ आसपुरी देवी तुम्हें वांछित फल देगी । ७९. तब वह इक्कीस दिनों में रत्नद्वीप पहुँचा । वहाँ वह देवी की आराधना करता है । सन्तुष्ट हुई वह देवी उसे कहती है ८०. 'हे सज्जन पुरुष ! तूने मुझे आज तक किस कारण से आराधित किया ?' तब वह कहता है - 'हे देवि ! यह उद्यम चिन्तामणि के लिए किया गया है ।' ८१. देवी कहती है- 'अरे अरे ! ऐसा नहीं है ? तुम्हारा कर्म ही सम्यक् करने वाला है । क्योंकि देवता भी कर्मानुसार धन देते हैं ।' ८२. तब वह कहता है कि यदि मेरा कर्म ऐसा होता तो मैं किसलिए तुम्हारी सेवा करता । तुम तो मुझे रत्न दो, जो होना है वह बाद में देखा जाएगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003808
Book TitlePrakrit Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1991
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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