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प्राकृत भारती
७०. अपने माता-पिता के दर्शन से उत्पन्न हुए प्रेम के भार से भरे हुए कुमार को वह अमरी / यक्षिणी केवलज्ञानी के पास बैठाती है । ७१. इसके अनन्तर केवली भी सभी तरह उसके उपकार के कारण को करते हैं । अमृत रस के सदृश आश्रयभूत अपने मत में धर्म की देशना करते हैं ।
७२. जैसे सज्जन पुरुष मनुज भव को प्राप्त कर धर्म में प्रमाद का आचरण करता है वह प्राप्त हुए चिन्तामणि रत्न को, समुद्र में डुबो देता है । ७३. एक श्रेष्ठ नगर में कलाओं में कुशल कोई वणिक रहता था । वह रत्न परीक्षा के ग्रन्थ को गुरु के पास में अभ्यास करता है ।
७४. सोगंधिक, कर्केतन, मरकत, गोमेद, इन्द्रनील, जलकान्त, सूर्यकान्त, मसारगल्य, अंक, स्फटिक इत्यादि ।
७५. इन सभी रत्नों के लक्षण, गुण, रंग, नाम, गोत्र आदि सभी वह जान जाता है । मणि-परीक्षा में विचक्षण हो जाता है ।
७६. इसके बाद एक दिन वह वणिक सोचता है कि इस तरह अन्य रत्नों से क्या लाभ? मणियों में शिरोमणि चिंतामणि रत्न सोचने मात्र से-धन को उत्पन्न करने वाला हो ।
७७. तब उस वणिक ने चिन्तामणि रत्न के लिए अनेक स्थानों पर कई खदानें खोदीं । विविध उपायों के करने से भी वह मणि उसे नहीं मिली ।
७८. किसी ने उससे कहा कि जहाज पर चढ़कर तुम रत्नद्वीप जाओ, तो वहाँ आसपुरी देवी तुम्हें वांछित फल देगी ।
७९. तब वह इक्कीस दिनों में रत्नद्वीप पहुँचा । वहाँ वह देवी की आराधना करता है । सन्तुष्ट हुई वह देवी उसे कहती है
८०.
'हे सज्जन पुरुष ! तूने मुझे आज तक किस कारण से आराधित किया ?' तब वह कहता है - 'हे देवि ! यह उद्यम चिन्तामणि के लिए किया गया है ।'
८१. देवी कहती है- 'अरे अरे ! ऐसा नहीं है ? तुम्हारा कर्म ही सम्यक् करने वाला है । क्योंकि देवता भी कर्मानुसार धन देते हैं ।'
८२. तब वह कहता है कि यदि मेरा कर्म ऐसा होता तो मैं किसलिए तुम्हारी सेवा करता । तुम तो मुझे रत्न दो, जो होना है वह बाद में देखा जाएगा।
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