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________________ १६८ प्राकृत भारती गया और द्रव्य रुपये, पैसे के बिना लोक-व्यवहार पूरा नहीं होता है।' इस बात को सुनकर मैंने कहा-'हे भगवन् ! आपके लिए लोक व्यवहार से क्या प्रयोजन है ? लोक का अस्तित्व आपके आशीर्वाद से ही है।' पुनः जटाधारी ने कहा-हे महापुरुष ! गाथा ६. 'गुरुजनों की पूजा, प्रेम, भक्ति, सम्मान को उत्पन्न करने वाला विनय सज्जन व्यक्तियों के भी दान के बिना सम्पन्न नहीं होते हैं। गाथा ७. 'दान द्रव्य के बिना नहीं होता है और द्रव्य धर्मरहित व्यक्तियों के पास नहीं होता है। घमण्ड से युक्त व्यक्तियों में विनय नहीं होता है।' [७] यह सुनकर मैंने कहा-'हे भगवन् ! ऐसा ही है। किन्तु आप जैसे व्यक्तियों का अवलोकन ही हमारे लिए दान है। आपका आदेश ही सम्मान है। इसलिए है, भगवन् ! मुझे क्या करना चाहिए, बताइये।' भैरवाचार्य के द्वारा कहा गया है--'हे महानुभाव ! परोपकार करने में तल्लीन आप जैसे व्यक्तियों का दर्शन, मनोरथ को पूरा करने वाला है। बहुत दिनों से एक मंत्र की साधना की जा रही है। उसकी सिद्धि तुम्हारे द्वारा प्राप्त होगी । यदि श्रीमान् समस्त विघ्न को नष्ट करने के लिए एक दिन उपस्थित हों तो आठ वर्ष का मंत्र जाप का परिश्रम सफल होगा।' तब मैंने कहा-'हे भगवन् ! इस आदेश से मैं अनुगहीत हुआ। तो कहाँ पर और किस दिन कार्य है ? ऐसा श्रीमान् आदेश दें।' उसके बाद ही जटाधारी ने कहा कि हे महानुभाव ! इस कृष्ण चतुर्दशी को तुम्हारे द्वारा हाथ में तलवार लिए नगर के उत्तरी बगीचे में श्मशान-भूमि में अकेले रात्रि का एक प्रहर बीत जाने पर आना चाहिए। वहाँ पर मैं तीनों जनों के साथ उपस्थित रहूँगा। तब मैंने कहा-'मैं ऐसा ही करूंगा।' [८] तब कई दिन व्यतीत होने पर चतुर्दशी ही रात्रि आई। संसार के एक मात्र लोचन सूर्य के डूब जाने पर अंधकार का फैलाव उतर आने पर मेरे द्वारा सभी सेवकों को विजित कर दिया गया और 'मेरा सिर दुखता है ऐसा कहकर मित्रों को भेज दिया गया। तब मै अकेला शयनगृह में प्रविष्ट हुआ। मैंने सिल्क के जोड़े को पहना। तलवार ग्रहण की और परिजनों से बचकर अकेला नगर से निकल गया। श्मशान भूमि में मुझे भैरवाचार्य ने देखा और मैंने उनको। तब जटाधारी ने मुझे कहा कि हे महानुभाव ! यहाँ तूफान होंगे। इसलिए Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003808
Book TitlePrakrit Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1991
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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