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________________ बारामशोभा-कथा [३८] उस भवन को देखकर पूर्वकाल में अनुभूति रतिकेलि के स्मरण से कामदेव के बाण को प्रसारित करने वाले विचार के उत्पन्न होने पर भी, प्रियतम के पास सोती हुई अपनी (सौतेली) बहिन को देख कर, अत्यन्त ईर्ष्यावश सौतेली माता के द्वारा निर्मित कँए में गिरा दिए जाने की दुर्घटना के स्मरण से अत्यन्त क्रोधित तथा अपने तनय के मुख-दर्शन से उत्पन्न प्रमोद के रस से प्रपूरित वह (आरामशोभा) क्षण भर तक स्थिर रहकर सैकड़ों धायों के मध्य में सोते हुए उस पुत्र के पास जा पहुँची । अपने सुकोमल हाथों से उसे उठाकर क्षणभर तक उसे खिलाकर चारों दिशाओं में अपने बगीचे के फूलों एवं फलों की वर्षा कर वह अपने निवास स्थान (कुँए) में वापस आ गई। [३९] प्रातःकाल होते ही धायों ने राजा से विनती की-"स्वामिन्, आज ऐसा दिखता है कि फूलों एवं फलों से किसी ने कुमार की पूजा की है।" यह सुनकर राजा भी उसके पास आया और उसे देखकर उस कृत्रिम आरामशोभा से (उसका कारण) पूछा । उसने उत्तर में कहा"मैंने अपने बगीचे का स्मरण कर उससे इन फूलों एवं फलों को यहाँ मँगवाया है।" तब राजा ने कहा- "इस समय भी उसे (बगीचे को) यहाँ क्या नहीं बुला लेती?" उसने उत्तर में निवेदन किया--"उसे दिन में बुलाना सम्भव नहीं।" तब उसके विरूप मुख को देखकर राजा मन में सोचने लगा-"इसमें अवश्य ही कोई प्रपंच है।" इसी प्रकार तीन दिन व्यतीत हो गये। तब राजा ने रानी से कहा-"आज अवश्य ही उस बगीचे को ले आओ।" यह सुनकर उसका मुख सर्वथा कान्ति हीन हो गया । दम्भ कितने दिन छिपा रहेगा? [४०] चौथी रात्रि में (वास्तविक) आरामशोभा पूर्ववत् ही सभी कृत्य करके जब वापस जाने लगी तभी राजा ने उसका हाथ पकड़ कर कहा"हाय, प्राणप्रिये, प्रियजन के परम प्रणय को इस प्रकार क्यों ठग रही हो ?" यह सुनकर उसने कहा-"प्राणेश्वर, ठग नहीं रही हूँ. किन्तु इसमें कुछ विशेष कारण है।" राजा ने कहा-“कहो, क्या कारण है ? अन्यथा मैं छोडूंगा नहीं।" उसने भी विनयपूर्वक निवेदन किया"नाथ, अभी तो मुझे छोड़ दीजिए, किन्तु कल इसका कारण अवश्य ही बता दूंगी। तब राजा ने कहा-"क्या (इतना) मूर्ख हूँ कि हाथ में आये हुए चिन्तामणि रत्न को छोड़ दूँ ?' (यह सुन) उसने कहा"ऐसा करने से आपको पश्चाताप ही होगा। इतने पर भी राजा ने ११ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003808
Book TitlePrakrit Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1991
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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