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* सम्पादक अनुभव * बहुत साल बीत गये सन्मतितर्कप्रकरण का सम्पादन एवं हिन्दी विवेचन करते करते।
प्रथमभाग के सम्पादन में एक पत्राकार मुद्रित प्रति, एक पुस्तकाकार किताब एवं सुखलाल-बेचरदासयुगल सम्पादित किताब का सदुपयोग किया गया था, जिस में प्राचीन हस्तप्रतियाँ कागज-ताडपत्रों की हस्तप्रतियों का भी आवश्यकतानुसार उपयोग किया था। द्वितीय से पंचम खंड के सम्पादन में मूलाधार तो सुखलाल-बेचरदास सम्पादित आवृत्ति ही रही, विशेषतः ऊपरि उल्लिखित हस्तप्रतियों का सहारा लिया गया। पंडितयुगल सम्पादित तृतीयखंड की आवृत्ति में बहुत ही अशुद्ध पाठ बहुत से प्रश्न चिह्न एवं कौंस लगा कर ऐसे ही छोड दिये गये थे - चूँकि उन्हें जो कागज की हस्तप्रत मिली थी वे सब वैसी ही अशुद्ध थी और उस खंड के लिये अति अपेक्षित ताडपत्रीय कोई प्रत उपलब्ध नहीं हुई। सम्पादनकाल में हमारी भी यही स्थिति रही। हमने हेतुबिन्दु एवं अन्य मुद्रित अनेक ग्रन्थों को देखा लेकिन उन से कुछ सहारा नहीं मिला।
__हाँ, प्रमाणवार्त्तिक ग्रन्थ बहुत स्थानों में उपयुक्त बना। प्रमाणवार्त्तिक की बहुत कारिकाएँ सन्मति० टीका ग्रन्थ में उद्धृत की गयी है अतः सम्पादन और हिन्दीविवेचन के लिये हम उस ग्रन्थ के ऋणी हैं।
पंडितयुगल के सम्पादन में विशमचिह्नों की दृष्टि से जहाँ जहाँ संमार्जन करने की आवश्यकता थी वह कर लिया है। तृतीयखंड सम्पादन में कौंसवाले प्रश्नचिह्नांकित जो परिच्छेद हैं वे सब हमने वैसे ही रखे हैं, फिर भी हिन्दी विवेचन में हमने जहाँ तक हो सके शुद्ध पाठ संभावना करके भावार्थ लिखने का प्रयास किया है। अत एव उन प्रभागों में हमारी भी क्षतियाँ पाठकों को दृष्टिगोचर हो सकती हैं एवं अन्य अन्य स्थलों में सम्पादन एवं विवेचन में भी हमारी त्रुटियां रह गयी होगी, पाठक वर्ग उनका सम्मार्जन करेंगे-हमारी यह प्रार्थना है। कारण, श्री जिनेश्वरप्रभु के वचनों में किसी भी क्षति को अवकाश नहीं होता, जो भी क्षतियाँ होगी वे हमारी हो सकती हैं।
जैन साधु पादचारी एवं भिन्न भिन्न प्रदेशों में विचरण करते हैं, बहुत परिमित सामग्री साथ में होती है, अतः अपेक्षित बहुभाग सामग्री के विरह के कारण भी अपेक्षित स्वरूप से सम्पादन और विवेचन कार्य करना सम्भवित नहीं रहता। हमारे इस विशालकाय कार्य में करीबन १ लाख से भी अधिक किमि० जघन्यरूप से पैदल विहार हो चुका होगा। अतः हमारे सम्पादन एवं विवेचन को कोई सम्पूर्ण मान लेने की जरूर नहीं है।
सिद्धान्तमहोदधि आचार्यदेव प.पू.श्री वि प्रेमसूरीश्वरजी म. सा०, न्यायविशारद प॰पू॰आ श्री वि.भुवनभानुसू० म. सा. एवं उनके पट्टालंकार सिद्धान्तदिवाकर सुविशाल गच्छाधिपति आ०देव श्री वि. जयघोषसू० म. सा. आदि गुरूभगवंत की कृपादष्टि से ही यह सुकृत हो सका है। अध्ययन-अध्यापन कराने वाले गुरुवर्ग, पंडितवर्ग, हस्तप्रत प्रदान करनेवाली संस्थाएँ, सुकृतकाल में उपयुक्त ग्रन्थ प्रदान करनेवाले जैन ज्ञानभंडार के संचालक, पूर्वमुद्रित प्रकाशन करनेवाली संस्थाएँ एवं पूर्व आवृत्तियों का सम्पादन करनेवाले विद्वज्जन ये सब इस सुकृत के सहभागी हैं, उन सभी का इस प्रकाशनकार्य पर ऋण है। इस आवृत्ति का प्रकाशन करने के लिये अपने ज्ञाननिधि से विशाल धनराशि का सदुपयोग करनेवाले जैन संघों को एवं इस ग्रन्थ के प्रकाशन की जिम्मेदारी वहन करनेवाली संस्था को हार्दिक धन्यवाद है। क्षतियों के लिये क्षमायाचना।
लि. जयसुंदरसूरि, वि० सं०२०६७.
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