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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् अथ संयोगो नोत्पद्यत इत्यभ्युपगमस्तदा वक्तव्यम् किमसौ A सन् B उताऽसन् ? यदि A संस्तदा तन्नित्यत्वप्रसक्तिः 'सदकारणवन्नित्यम्' ( वैशे० सू० ४-१ - १ ) इति भवतोऽभ्युपगमात् । तथा चासौ गुणो न भवेत् – नित्यत्वेनाऽनाश्रितत्वाद्, अनाश्रितस्य च पारतन्त्र्याsयोगाद्, अपरतन्त्रस्य चाऽगुणत्वाद् । B अथाऽसन्निति पक्षस्तदा कार्यानुत्पत्तिप्रसंग:, तदभावे प्राग्वद् विशिष्टपरिमाणोपेतकार्यद्रव्योत्पत्त्यभावात् । तथा च जगतोऽदृश्यताप्रसक्तिरिति संयोगैकत्वसंख्यापरिमाणमहत्त्वपरत्वाद्यनेकगुणानां तत्रोत्पत्तिरभ्युपेया, कारणगुणपूर्वप्रक्रमेण कार्योत्पत्त्यभ्युपगमात् । ' इष्टमेवैतद्' इति चेत् ? ननु तेषां क आश्रय इति वक्तव्यम्, न तावत् कार्यम्, तदुत्पत्तेः प्राक् तस्याऽसत्त्वात्, सत्त्वे वोत्पत्तिविरोधाद् । न च प्रथमक्षणे निर्गुणमेव कार्यं गुणोत्पत्तेः प्रागस्तीति वक्तव्यम् गुणसम्बन्धवत् सत्तासम्बन्धस्याप्याद्यक्षणे अभावतस्तत्सत्त्वाऽसम्भवात् । न चोत्पत्ति -सत्तासम्बन्धयोरेककालतयाऽद्यक्षण एव सत्त्वम्, स्थान पायेगी । c यदि संयोग को अनाश्रित ही मानेंगे तो वह निर्हेतुक ही उत्पन्न होने की दुर्घटना प्रसक्त होगी । ६२ * संयोग के अनुत्पन्न पक्ष में विकल्प प्रहार यदि इस झंझट से बचने के लिये कहा जाय कि संयोग अतिशय उत्पन्न नहीं होता तो यहाँ भी दो प्रश्न हो सकते हैं, A वह संयोग सत् है ? या B असत् है ? A सत् मानेंगे तो उस को नित्य भी मानना पडेगा क्योंकि आप के वैशेषिक दर्शन में कहा गया है कि जो 'सत् एवं कारणशून्य होता है वह नित्य होता है ।' यदि उसे नित्य मान लेंगे तो वह गुणात्मक नहीं होना चाहिये, क्योंकि जो गुण होता है वह किसी द्रव्य का आश्रित जरूर होता है, नित्य पदार्थ नित्य होने के कारण किसी का आश्रित नहीं होता, जो आश्रित नहीं होता वह किसी को परतन्त्र नहीं होता, जो किसी ( द्रव्य आदि) को परतन्त्र नहीं है वह 'गुण' कैसे हो सकता है ? B यदि वह संयोग, जो उत्पन्न नहीं होता, वह असत् है तब तो किसी भी कार्य की उत्पत्ति ही सम्भव नहीं रहेगी । कारण, जब संयोग ही नहीं है तो दो परमाणु से द्व्यणुक पैदा नहीं होगा, तीन द्व्यणुक से त्र्यणुक भी उत्पन्न नहीं होगा, फलतः विशिष्ट महत् परिमाणवाले कार्यद्रव्य की उत्पत्ति ही असम्भव है । विशिष्ट परिमाण के विरह में किसी भी त्र्यणुकादि द्रव्य का प्रत्यक्ष शक्य न होने से सारा जगत् अदृश्य बन जायेगा । इस दुर्घटना से बचने के लिये, यानी दृश्य जगत् की संगति के लिये द्रव्यों में संयोग, एकत्वसंख्या, परिमाण, महत्त्व, परत्व आदि अनेक गुणों की उत्पत्ति अवश्य माननी पडेगी, उसका कारण यह है कि कार्य अथवा कार्य गुणादि की उत्पत्ति अपने कारणगत गुणों की परम्परा से होती है । अतः संयोग को अनुत्पन्न मानना ठीक नहीं हो सकता । वादी :- संयोगादि की उत्पत्ति हमें मान्य ही है । प्रतिवादी :- मान्य तो है लेकिन उन का आश्रय कौन होगा यह भी तो कहना होगा ! कार्यद्रव्य तो उनकी उत्पत्ति के पहले है नहीं अतः कार्य तो उन का आश्रय बन नहीं सकता । और यदि वह पहले है, तब तो संयोग से उसकी उत्पत्ति की बात ही विरोधग्रस्त होने से समाप्त हो जायेगी । वादी :- संयोगादि के पहले कार्यद्रव्य की सत्ता मंजुर करने में कोई बाध नहीं है, क्योंकि संयोगादि गुणों की उत्पत्ति के पहले कार्यद्रव्य अपनी उत्पत्ति के प्रथम क्षण में निर्गुण ही होता है । प्रतिवादी :- यदि प्रथम क्षण में कार्यद्रव्य में गुण-सम्बन्ध का अस्वीकार करेंगे तो उस का सत्तासम्बन्ध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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