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पञ्चमः खण्डः - का० ३९ ___ यतः कार्योत्पत्तौ तेषां संयोगोऽतिशयो भवतु, संयोगोत्पत्तौ तु तेषां कोऽतिशयः इति वाच्यम् । न तावत् स एव संयोगः तस्याद्याप्यनुत्पत्तेः, नापि संयोगान्तरम् तस्यानभ्युपगमात्; अभ्युपगमेऽपि तदुत्पत्तावप्यपरसंयोगातिशयप्रकल्पनायामनवस्थाप्रसक्तेः । न च क्रिया अतिशयः तदुत्पत्तावपि पूर्वोक्तदोषप्रसंगात् । किञ्च, अदृष्टापेक्षादात्माणुसंयोगात् परमाणुषु क्रियोत्पद्यत इत्यभ्युपगमादात्म-परमाणुसंयोगोत्पत्तावप्यपरोऽतिशयो वाच्यः, तत्र च तदेव दूषणम् ।
किंच, असौ संयोगो व्यणुकादिनिर्वर्तकः किं परमाण्वाद्याश्रितः उत तदन्याश्रित आहोस्विद् अनाश्रित इति ? यद्याद्यः पक्ष तदा तदुत्पत्तावाश्रय उत्पद्यते नवेति ? यद्युत्पद्यते तदा परमाणूनामपि कार्यत्वप्रसक्तिस्तत्संयोगवत् । अथ नोत्पद्यते तदा संयोगस्तदाश्रितो न स्यात्, समवायस्याभावात्, तेषां च तं प्रत्यकारकत्वात् तदकारकत्वं तु तत्र तस्य प्रागभावाऽनिवृत्तेस्तदन्यगुणान्तरवत् । ततस्तेषां कार्यरूपतया परिणतिरभ्युपगन्तव्या, अन्यथा तदाश्रितत्वं संयोगस्य न स्यात् । अन्याश्रितत्वेऽपि पूर्वोक्तदोषप्रसंगः । अनाश्रितत्वपक्षे तु निर्हेतुकोत्पत्तिप्रसक्तिः ।
* संयोग को अतिशय मानने पर भी अनिस्तार * ___ गलत होने का कारण यह है कि संयोग को कारणों का अतिशय मान लिया, किन्तु प्रश्न यह है कि संयोगरूप अतिशय से जैसे व्यणुकादि का जन्म होता है वैसे संयोग को उत्पन्न करने के लिये वे कौन सा अतिशय मानेंगे ? यह कहना पडेगा । वही संयोग तो अपनी उत्पत्ति के पहले ‘अतिशय' नहीं बन सकता, क्योंकि तब उस की सत्ता ही नहीं है । अन्य संयोग को भी ‘अतिशय' नहीं बता सकते क्योंकि संयोग के पहले संयोग मंजुर ही नहीं है । अगर उसे भी मंजुर कर ले तो उस की उत्पत्ति के लिये और कोई संयोगरूप अतिशय कारणों में था, उस अतिशयसंयोग की उत्पत्ति के लिये भी और कोई संयोगातिशय.. इस तरह की व्यर्थ कल्पना का अन्त ही नहीं आयेगा । यदि क्रिया को संयोग के पूर्व अतिशय माने तो क्रिया के लिये भी वे ही दोष आ पडेंगे जो संयोग के बारे में दिखाये गये हैं, क्योंकि क्रिया की उत्पत्ति के लिये भी अतिशय का प्रश्न सिर उठायेगा । दूसरी बात यह है कि सिद्धान्तानुसार क्रिया की उत्पत्ति अदृष्ट के सहकार से, आत्मा
और अणु के संयोग से होती है; अतः आत्मा-अणु के संयोग की उत्पत्ति के लिये भी और एक अतिशय दिखाना पडेगा और फिर से वही अनवस्था आदि दूषण-परम्परा चल पडेगी ।
व्यणुकनिष्पादक संयोग के बारे में भी प्रश्न खडे होंगे कि वह a परमाणुआदिआश्रित है या b अन्य किसी का आश्रित है या 0 अनाश्रित ही होता है ? प्रथम पक्ष मंजर करने पर प्रश्न खडे होंगे कि 11 संयोग की उत्पत्ति के साथ साथ उसके आश्रयभूत परमाणु भी उत्पन्न होंगे या a2 नहीं ? a2 यदि नहीं उत्पन्न होते तब तो संयोग को उन में आश्रय भी नहीं मिलेगा, क्योंकि समवाय का तो बार बार निषेध हो चुका है; तथा वे परमाणुसंयोग के प्रति कारण भी नहीं हो सकते । कारण, परमाणु में बार बार संघटन-विघटन होने पर भी संयोग एवं अन्य गुण बार बार उत्पन्न होते रहने से यह मानना पडेगा कि वहाँ संयोग का प्रागभाव भी अन्यगुणों के प्रागभाव की तरह निवृत्त कभी नहीं होता; जब संयोग का प्रागभाव परमाणु से निवृत्त नहीं होता तब परमाणुसमुदाय कैसे संयोग को उत्पन्न कर सकते हैं ?! अतः मानना चाहिये कि संयोग के साथ साथ संयोगात्मककार्यपरिणाम में परिणत परमाणुओं की भी उत्पत्ति होती है । ऐसा यदि न मानेंगे तो संयोग परमाणुओं का अभेदभाव से आश्रित नहीं बन सकेगा । b यदि संयोग को अन्याश्रित मानेंगे तो वहाँ परमाणु का संयोग अतिशय न बन सकेगा और व्यणुकादि उत्पन्न नहीं हो पायेगा - वही पूर्वोक्त दोष की दुर्घटना
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