SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् गुलिद्रव्यावस्थितीनामभिन्नकालता अभिन्नरूपता च प्रतीयते, एकस्यैव द्रव्यस्य तथाविवर्त्तात्मकस्याध्यक्षतः प्रतीतेः । अथवा, ‘कालान्तरं नास्ति' इत्यत्र 'अ'कारप्रश्लेषाद् नञश्चोपादानात् प्रतिषेधद्वयेन प्रकृतार्थगतेः कालान्तरं कालभेद उत्पादादेव्यस्य चास्तीति कथंचिद् भेद इत्यर्थः, कथंचिद् भेदेनापि प्रतिपत्तेः । तेनोत्पत्ति-विनाश-स्थितीनां परस्पररूपपरित्यागाऽपरित्याग-प्रवृत्तप्रत्येकत्र्यात्मकैकरूपत्वेऽपि न वर्त्तमानपर्यायात्मकस्यैवाऽतीताऽनागतकालयोः सत्त्वम् वस्तुनस्त्र्यात्मकत्वाभ्युपगमात् । अतीताऽनागतकालयोरपि तद्रूपेण सत्त्वे उत्पाद-विनाशयोरभावेन कथं त्र्यात्मकत्वं तस्य भवेत् ? द्रव्यस्योत्पत्ति-विनाशनिमित्तत्वादतीहोती है इसलिये संकोच-विस्तार दोनों अवस्था में भेद सिद्ध होता है । यदि उन दोनों में भेद नहीं माना जाय तो परस्पर विरुद्ध ये दो अवस्था अपने स्वरूप को खो बैठेगी; जैसे आग पानी हो जाय या पानी आग बन जाय तो अपने स्वरूप को खो बैठते हैं। पूर्वकालीन संकोचावस्थावाला अंगुलीद्रव्य और उत्तरकालीन विस्तरणावस्थावाला अंगुलीद्रव्य, ये दोनों अपनी अपनी परस्परविरुद्ध अवस्था से अभेद रखते हैं इसलिये उस में भी भेद का स्वीकार अनिवार्य हो जाता है । यदि भिन्न भिन्न अवस्थावाले द्रव्य को एक मानेंगे तो परस्पर विरोध होने के कारण किसी एक के रहने में विनिगमना न होने पर, उन दोनों की उपलब्धि स्थगित हो जायेगी। स्याद्वाद सर्वोपरि है, इसलिये उन में सर्वथा भेद नहीं किंतु कथंचिद् अभेद भी मान्य है, क्योंकि पूर्वोत्तर अवस्था में भी 'यह वही अंगुलीद्रव्य है' इस प्रकार एकत्वाध्यवसायरूप निर्बाध प्रत्यभिज्ञा होती है । ___ संकोच-विकास अवस्था के जो उत्पाद-विनाश हैं, अर्थात् संकोचावस्था का प्रादुर्भाव और विकास अवस्था का विगम, इन में भिन्नकालता नहीं होती । तात्पर्य, उन दोनों के आधारभूत अंगुलीद्रव्य में, संकोचप्रादुर्भाव और विकासविगम अवस्था समकालीन होने से भेद मानने की जरूर नहीं रहती, अतः भिन्न भिन्न अंगुलीद्रव्य मान कर उन में कालभेद मानने की भी जरूर नहीं है । यहाँ स्पष्ट प्रतीति होती है कि विस्तारात्मक पूर्वपर्याय का नाश, संकोचात्माक उत्तर पर्याय का प्रादुर्भाव और अंगुलीद्रव्य की सातत्यात्मक स्थिति ये तीनों एक ही हैं और समानकालीन हैं; वास्तवविकता यह है कि यहाँ प्रत्यक्ष से ही यह प्रतीत होता है कि एक ही अंगुली आदि द्रव्य सतत संकोच-विस्तार आदि पृथक् पृथक् विवर्तों में अभेदभाव से अनुवर्तमान रहता है ।। * अतीत-अनागत-वर्त्तमान पर्यायो में कथंचिद् भेद * मूल सूत्र के उत्तरार्ध में 'कालंतरं णत्थि' इस अंश की व्याख्या दूसरे ढंग से करते हुए व्याख्याकार कहते हैं कि 'विगमे' शब्द के बाद संधिनियमानुसार लुप्त 'अ' कार को 'कालन्तरं' के साथ जोडने पर ‘अकालान्तर नहीं है' ऐसा वाक्य फलित होता है । इस में दो निषेध होने से 'कालान्तर है' ऐसा विधेयार्थ प्राप्त होता है । इस का भावार्थ यह है कि द्रव्य के उत्पादादि में कालभेद होने से द्रव्य में भी कथंचिद् भेद है, क्योंकि भिन्न भिन्न काल में भेद से ही द्रव्य प्रतीत होता है । इस से यह निष्कर्ष निकलेगा कि यद्यपि उत्पत्ति, विनाश और स्थिति ये तीनों, परस्पर का परिहार कर के एवं सहवर्ती हो कर रहने वाले एक एक करके उन तीनों के साथ अभेदभावापन्न जो द्रव्य हैं उस के साथ एकरूपता रखनेवाले हैं, फिर भी, कालभेद अपरिहार्य होने से जो वर्तमानपर्यायात्मक वस्तु है वह अतीत या अनागत काल में अस्तित्वधारक नहीं होती । कारण, वस्तु को उत्पादादित्रयात्मक मानी गयी है । यह त्रयात्मकता तभी घट सकती है जब वर्तमानपर्याय अतीत-अनागत से भिन्न हो । यदि वर्त्तमानपर्याय अपने व्यक्तिरूप से अतीत और अनागतकाल में भी सत्ताशाली रहेगा, तब शाश्वत हो जाने से, उस के उत्पाद-विनाश की कथा ही समाप्त हो जायेगी तो फिर वस्तु की त्रयात्मकता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy