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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ३६ पन्यासात् ॥३५॥ अत्रैवार्थे प्रत्यक्षप्रतीतमुदाहरणमाह - जो आउंचणकालो सो चेव पसारियस्स वि ण जुत्तो । तेसिं पुण पडिवत्ती-विगमे कालंतरं पत्थि ॥३६॥ ___य आकुश्चनकालोऽङ्गुल्यादेव्यस्य स एव तत्प्रसारणस्य न युक्तः भिन्नकालतया आकुंचन-प्रसारणयोः प्रतीतेस्तयोर्भेदः, अन्यथा तयोः स्वरूपाभावापत्तेरित्युक्तम् । तत्तत्पर्यायाभिन्नस्याङ्गुल्यादिद्रव्यस्यापि तथाविधत्वात् तदपि भिन्नमभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा तदनुपलम्भात्; अभिन्नं च तदवस्थयोस्तस्यैव प्रत्यभिज्ञायमानत्वात् । तयोः पुनरुत्पादविनाशयोः प्रतिपत्तिश्च = प्रादुर्भावः, विगमश्च = विपत्तिः - प्रतिपत्ति-विगमं तत्र कालान्तरं भिन्नकालत्वमङ्गुलीद्रव्यस्य च नास्ति । पूर्वपर्यायविनाशोत्तरपर्यायोत्पत्त्यप्रवृत्ति भी घट नहीं सकती । स्वयंप्रकाशी प्रमाण से जब इस प्रकार स्पष्ट संवेदन होता है कि - द्रव्य और उत्पादादि कथंचिद भिन्नाभिन्न है और उसकी ग्रहण क्रिया में वैसे ही प्रत्यक्षप्रमाण परिणत है – तब उस का अपलाप कैसे हो सकता है ? यदि प्रमाणसिद्ध वस्तु का अपलाप करने जायेंगे तो बहुत बडा अनिष्ट होगा कि सारे जगत का व्यवहार ठप हो जायेगा । * अर्थान्तर-अनर्थान्तरत्वसाधक अन्य दो अनुमान * व्याख्याकार और भी दो अनुमान सूचित करते हैं, (१) भिन्नकालीन या अभिन्नकालीन एवं देशभेद और स्वभावभेद से विभिन्न ऐसे उत्पादस्वभाव, विनाशस्वभाव और स्थितिस्वभाव परस्पर कथंचिद् अर्थान्तर और अनर्थान्तररूप होते हैं, क्योंकि ये सब द्रव्यात्मक हैं, अर्थात् द्रव्य से अव्यतिरिक्त हैं । विपक्ष में बाधक यह है कि यदि द्रव्य से अव्यतिरिक्त होने पर भी वे परस्पर सर्वथा भिन्न होंगे तो द्रव्य के साथ अभेद को गवाँ देने के कारण निराधार हो कर असत् हो जायेंगे । (२) ऐसा भी अनुमान कर सकते हैं कि द्रव्य उत्पादादिस्वभावत्रय से कथंचिद् अर्थान्तर-अनर्थान्तररूप होता है, क्योंकि वह द्रव्य है । हालाँकि, यहाँ पक्ष के रूप में द्रव्य प्रतिज्ञा में शामिल है और द्रव्य(त्व) ही हेतु है इसलिये हेतु में प्रतिज्ञातअर्थएकदेशतारूप दोष की आशंका हो सकती है। किन्तु वास्तव में वह दोष निरवकाश है क्योंकि हेतु तो द्रव्यसामान्य है जब कि विशिष्टद्रव्य यानी अर्थान्तरअनर्थान्तरोभयत्वविशिष्ट द्रव्य साध्य है, इस प्रकार विशिष्ट और सामान्य में कथंचिद् भेद होने से कोई दोष नहीं है, जैसे-अग्नि उष्ण है क्योंकि अग्नि है, इस स्थल में उष्णत्व विशिष्ट अग्नि की सिद्धि के लिये अग्निसामान्य को हेतु किया जाता है तब कोई दोष नहीं होता ॥३५।। * आकुंचन-प्रसारण का उदाहरण * ____ भिन्नकालता और अभिन्नकालता को स्पष्ट दिखाने के लिये ३६वे सूत्र में प्रत्यक्ष-उपलब्ध दृष्टान्त प्रस्तुत करते हैं - ___ मूलगाथार्थ :- जो संकुचनकाल है वही प्रसारण का काल नहीं होता । उन के प्रतिपत्ति और विगम में भिन्नकालता नहीं होती (अथवा होती है ।) ।।३६।। व्याख्यार्थ :- अंगुली आदि जो संकोच-विकासधर्मी द्रव्य है, जिस काल में वह संकोचावस्था में है उसी काल में प्रसारण अवस्था का होना न्यायसंगत नहीं है । संकोच-विस्तार ये दोनों क्रिया भिन्नकालीन प्रतीत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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