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पञ्चमः खण्डः - का० २७ न चैवमव्यापकोऽनेकान्तवादः, 'स्यात्' पदसंसूचितानेकान्तगर्भस्यैकान्तस्य तत्त्वात् अनेकान्तस्यापि 'स्यात्' कारलाञ्छनैकान्तगर्भस्य अनेकान्तस्वभावत्वात् । न चानवस्था, अन्यनिरपेक्षस्वस्वरूपत एव तथात्वोपपत्तेः । यद्वा स्वरूपत एवानेकान्तस्यैकान्तप्रतिषेधेनानेकान्तरूपत्वात् 'स्यादेकान्तः' 'स्यादनेकान्तः' इति कथं नानेकान्तेऽनेकान्तोऽपि । अनेकान्तात्मकवस्तुव्यवस्थापकस्य तद्व्यवस्थापकत्वं स्वयमनेकान्तात्मकत्वमन्तरेणाऽनेकान्तस्यानुपपन्नमिति न तत्राऽव्यापकत्वादिदोष इत्यसकृदावेदितमेव ॥२७॥
नन्वनेकान्तस्य व्यापकत्वे 'षड् जीवनिकायाः – तदघाते वा धर्मः' इत्यत्राप्यनेकान्त एव स्यादित्याशंक्याह -
* अनेकान्त की अव्यापकता का भय निर्मूल * मन में डर रखने की जरूर नहीं है कि 'अनेकान्त के अनेकान्त से फलित एकान्त के सिर उठाने पर अनेकान्त उस अंश में अव्यापक ही रह जायेगा' - ऐसा डर तभी होता अगर वह फलित एकान्त अनेकान्त से सर्वथा निरपेक्ष होता । यहाँ तो 'स्यात् (कथंचित्) शाश्वत ही है' इस प्रकार का जो एक धर्मावगाही एकान्त है वह निर्विष सर्पतुल्य है, उस का विष तो 'स्यात्' पद से सूचित अनेकान्त की अमृतौषधि से ध्वंस किया हुआ है । लोग में भी प्रसिद्ध है मारणादि विधि से गुजरा हुआ विष औषध बन जाता है । अनेकान्त भी स्वयं अनेकान्तस्वभाव होने से उस में भी 'स्यात्' पदानुविद्ध एकान्त, गर्भितरूप से शामिल रहता ही है । ___ यदि यह कहा जाय - अनेकान्त के अनेकान्त से जो एकान्त फलित होता है उस के गर्भ में आप जो अनेकान्त प्रदर्शित करते हैं, उस में भी आप को अनेकान्त मानना होगा, परिणामस्वरूप एक नया एकान्त फलित होगा, उस को भी आप अनेकान्तगर्भित बतायेंगे तो उस गर्भित अनेकान्त में भी अनेकान्त मानना होगा... इस प्रकार अनेकान्त में भी अनेकान्त, उस में भी अनेकान्त... अन्त ही नहीं आयेगा । - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ अनेकान्त में अनेकान्त बताने का इतना ही तात्पर्य है कि अनेकान्त परस्पर सापेक्ष अनेक एकान्तगर्भित होता है । उसका मतलब यह तो कभी नहीं है कि अनेकान्त स्वभिन्न एक नये अनेकान्त पर अवलम्बित होता है। अन्य अनेकान्त से निरपेक्ष ही अनेकान्त का अपना स्वरूप होता है । अनेकान्त अपने स्वरूप से ही अनेकान्तात्मक होता है, इसलिये अन्य अन्य अनेकान्त की अपेक्षा से संभवित अनवस्था को कोई अवकाश ही नहीं है ।
अथवा, जब अनेकान्त का स्वरूप ही एकान्तनिषेधात्मक है तो फिर अनवस्था को अवकाश ही क्यों बचेगा ? एकान्तनिषेध यही अनेकान्त की अनेकान्तरूपता है, नये किसी अनेकान्त को ला कर अनेकान्तरूपता का उपपादन करने का क्लेश ही नहीं है फिर कैसे अनवस्था ?! अनेकान्त का अपना स्वरूप 'स्याद् अनेकान्त:' ऐसा है, इसी से फलित होता है ‘स्याद् एकान्तोऽपि' अर्थात् कथंचिद् एकान्त है कथंचिद् अनेकान्त है - इस प्रकार अनेकान्त के भंगों में स्वयं ही अनेकान्त व्यक्त हो रहा है तो 'अनेकान्त में अनेकान्त है' ऐसा कहने में दोष क्या है ?! दूसरी बात यह है कि किसी भी वस्तु का स्वरूपनिर्धारण अन्यथाऽनुपपत्ति से जब फलित होता है तब उस में कभी भी कल्पित दोषों को स्थान नहीं होता क्योंकि अन्यथानुपपत्ति सर्वतो बलीयसी होती है । प्रस्तुत में, वस्तुमात्र में अनेकान्तात्मकता की स्थापना करनेवाला जो अनेकान्त(वाद) है वह स्वयं यदि अनेकान्तात्मक न हो तो उस से वस्तुमात्र में अनेकान्तात्मकता की स्थापना का सम्भव ही नहीं है, इस प्रकार वस्तु में अनेकान्तात्मकता
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