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पञ्चम: खण्ड: का० ६९
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अथ पक्षादिवचनस्याऽसाधनाङ्गत्वात्तदुद्भावने वादिनस्तदपरिज्ञाननिबन्धनपराजयाधिकरणता तर्हि 'यत् सत् तत् सर्वं क्षणिकम्' इति व्याप्तिवचनादेव शब्दस्यापि क्षणिकत्वसिद्धौ 'संश्च शब्दः' इत्यभिधानं तत एव तस्य पराजयाधिकरणं भवेत् । न च शब्दे शब्द ( ? सत्त्व) विप्रतिपत्तिर्येन तन्निरासाय सत्त्वाभिधानं तत्राऽपुनरुक्तं भवेत्, तद्विप्रतिपत्तौ वा तत्साधकहेतु (तो) रसिद्धत्वादिदोषत्रयानतिवृत्तेर्भवतैवाभ्युपगमात् तत्साध्यत्वानुपपत्तिः ।
यदि च संक्षिप्तवचनात् साध्यसिद्धौ तद्विस्तराभिधानं निग्रहस्थानं तर्हि सत्त्वात् क्षणक्षयसिद्धौ कृतकत्व-प्रयत्नान्तरीयकत्वाद्यभिधानं कथं न निग्रहस्थानं स्यात् ? कथं वा कृतकप्रयत्नानन्तरीयकादिषु स्वार्थिकस्य तस्योपादानं तत्र स्यात् ? ' यत् सत् तत् सर्वं क्षणिकम्' इत्यादिसाधनवाक्यमभिधाय पक्षादिवचनवत् तत्समर्थनमपि निग्रहस्थानं प्रसक्तम् असमर्थितमपि स्वत एव तत्त्वेनोक्तमेव । स्वसाध्याऽविनाभूतस्य हेतोः प्रदर्शनमात्रात् साध्यसिद्धेः सद्भावात् स्वभाव-कार्यानुपलम्भप्रकल्पनया
तथा, नैयायिक ने जो 'अधिक' आदि निग्रहस्थान बताया है वह भी वादी के पराजय का अधिकरण नहीं बन सकता । सच तो यह है कि वादी ने अगर पक्षादि के निर्देश करने में कोई अधिक निर्देश कर दिया तो उस से न तो वादी की पक्षसिद्धि में प्रतिबन्ध होता है, न तो वह प्रतिवादी की पक्षसिद्धि में साधकतम बनता है, इसीलिये वैसा कोई भी दोषोद्भावन पराजयप्रयोजक नहीं हो सकता । अन्यथा, वादी पादप्रसारण करे तो वह भी पक्षसिद्धि में अनुकुल न होने से, उस का उद्भावन भी वादी प्रतिवादी के लिये पराजय-जय का अधिकरण हो जायेगा । * पक्षादिवचन से निग्रह का बौद्धमत अनुचित
यदि बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि व्याप्तिसहित हेतु और उपनय से ही साध्य सिद्धि हो जाने पर पक्षादि का अधिक वचन साधनाङ्गभूत न होने से, जब उस का ( अधिकता का ) प्रतिवादी की ओर से उद्भावन किया जाय तब अधिकतादिदोषाज्ञानमूलक पराजय वादी को जरूर प्राप्त होना चाहिये तो बौद्ध को भी कहना होगा कि 'जो सत् है वह क्षणिक होता है' इस व्याप्ति का उल्लेख करने मात्र से ही 'यत्'
पदार्थ अन्तर्गत शब्दपदार्थ में भी सत्त्वहेतुक क्षणिकता की सिद्धि हो जाती है, तब ' शब्द भी सत्' है यह उपनय वचन अधिक हो जाने से बौद्ध भी पराजयाधिकरण हो जायेगा । शब्द में सत्त्व के होने में किसी को विवाद नहीं है जिस का निराकरण करने के लिये शब्द में सत्त्व का निर्देश करने पर, 'पुनरुक्ति नहीं है' ऐसा कहा जा सके। यदि शब्द में सत्त्व होने न होने में विवाद होगा तो शब्द - पक्ष में सत्त्व हेतु असिद्धि आदि तीन दोष में से किसी एक दोष से ग्रस्त हो जायेगा, (अर्थात् संदिग्धासिद्धि का भोग बन जायेगा ) बौद्ध ने भी यह माना हुआ है, फलतः शब्द में क्षणिकत्व साध्य की संगति ही नहीं बैठेगी।
* अधिकवचन की निग्रहस्थानता अमान्य
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‘अधिक’ वचन को दोष मानते हुए यह जो कहा है कि संक्षिप्त कथन से ही साध्य सिद्ध हो सकता है तब विस्तार कथन निग्रहस्थान है तो बौद्ध मत में सत्त्व हेतु से ही साध्य की सिद्धि हो सकती है तब कृतकत्व अथवा प्रयत्नानन्तरीयकत्व आदि हेतुप्रयोग भी निग्रहस्थान क्यों नहीं होगा ? अथवा, कृतक और प्रयत्नानन्तरीयक शब्दों का हेतुरूप में जब प्रयोग किया जाता है तब वहाँ 'कृत' और 'प्रयत्नान्तरीय' शब्दों के प्रयोग से भी निर्वाह हो सकता है तब स्वार्थ में 'क' प्रत्यय के साथ हेतु का उपादान वहाँ कैसे उचित कहा जा सकता है ? तथा, बौद्ध की ओर से 'जो सत् है वह क्षणिक होता है' इस साधनवाक्य
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