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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् साध्यसिद्धेरभावात् तस्य निग्रहस्थानमेव । न, भ्रूविक्षेपादेरसाधनाङ्गकरणस्य तत एव तत्प्राप्तेः। ततो वादिनमसाधनाङ्गमभिदधानं कुर्वाणं वा स्वपक्षसिद्धिं विदधदेव प्रतिवादी तत्पक्षप्रतिक्षेपेण निगृह्णातीत्येतदेव न्यायोपेतमुत्पश्यामः। ___ एवं प्रतिवादिनो दोषमनुद्भावयतो न निग्रहस्थानम् तावता स्वपक्षसिद्धिमकुर्वाणस्य वादिनो विजयप्राप्त्ययोगात् तत्साधनस्य सदोषत्वसम्भवात् । 'तस्य सदोषत्वेऽपि तदुद्भावनाऽसमर्थत्वात् प्रतिवादिनो निग्रहस्थानं तद्' इति चेत् ? न, दोषवत्साधनाभिधानाद् वादिनोऽपि पराजयाधिकरणत्वात् द्वयोरपि
युगपत् पराजयप्राप्तेः। अत एव प्रतिवादिनो दोषस्यानुद्भावनमपि न निग्रहस्थानम् । यच्च वादिपक्षसिद्धेरप्रतिबन्धकं पक्षादिवचनाधिक्योद्भावनं प्रतिवादिपक्षसिद्धावसाधकतमं तत् सर्वं न वादिनः पराजयाधिकरणम् अन्यथा तत्पादप्रसारिकाद्युद्भावनमपि तस्य पराजयाधिकरणम् स्यात् ।
किसी ने जो यह कहा है - ‘साधन' यानी इष्ट अर्थ की सिद्धि, उस के तीन अंग हैं स्वभाव हेतु - कार्य हेतु और अनुपलम्भ हेतु । अथवा ये तीन अंग है – पक्षवृत्तित्व, सपक्षवृत्तित्व और विपक्षव्यावृत्ति । इस प्रकार के अंग का कथन नहीं करना- अर्थात् स्वपक्षसाधक हेतु का अथवा उस हेतु में त्रिरूपता का निरूपण न करना, यही वादी के लिये निग्रहस्थान है। - किन्तु यह भी पूरा सच नहीं है, क्योंकि वादी के स्वपक्षसिद्धि न करने मात्र से उस की पराजय होने द्वारा स्वपक्षसिद्धि न करनेवाले प्रतिवादी का जय मान लेना भी उचित नहीं है। जब तक प्रतिवादी अपने हेतु में पक्षधर्मतादि किसी एक अंग का निरूपण न करे या उस का समर्थन न करे तब तक प्रतिवादी का विजय नहीं हो सकता और प्रतिवादी का विजय न होने से वादी का पराजय भी घट नहीं सकता क्योंकि जय-पराजय तो एक ही मुद्रा के दो पहलू हैं, अतः एक का पराजय अन्य के जय के विना नहीं हो सकता। इसी न्याय से, ‘जय के विना पराजय नहीं' इस न्याय से ही, हेत्वाभास की निग्रहस्थानता दुरापास्त हो जाती है, क्योंकि प्रतिवादी जब तक स्वपक्षसिद्धि न करे तब तक अनाभोग आदि से असाधनाङ्गभूत हेत्वाभास का प्रयोग कर देने मात्र से वादी को पराजित नहीं मान सकते।
यदि कहा जाय - हेत्वाभास से वादी की स्वपक्षसिद्धि नहीं होती इसी लिये वह निग्रहस्थान को प्राप्त हो जायेगा। – तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि वादी के भ्रू-विक्षेप आदि भी कायिकरूप से असाधनाङ्गभूत होने से, अत एव साध्य-सिद्धि-कारक न होने से वादी निगृहीत हो जाने का संकट खडा होगा।
निष्कर्ष, स्वपक्ष की सिद्धि करने के साथ ही यदि प्रतिवादी, असाधनाङ्ग कथन करने वाले अथवा असाधनाङ्गभूत क्रिया करने वाले वादी के पक्ष का प्रतिक्षेप कर के उस को निगृहीत कर सकता है – यही न्यायसंगत दृष्टि है। अतः नैयायिकादि ने जो २१ निग्रहस्थानों का प्रदर्शन किया है वह पूर्णरूप से स्वपक्षसिद्धिनिरपेक्ष होने पर युक्तियुक्त नहीं है।
* दोषोद्भावन में अशक्तिमात्र से निग्रह अशक्य * __ प्रतिवादी यदि वादी के मत में दोषोद्भावन न करे तो निग्रहस्थान प्राप्त करे – यह भी न्याययुक्त नहीं है. क्योंकि तब भी वादी स्वपक्षसिद्धि न करने से विजयी नहीं होता, क्योंकि तब उस काल में उस का हेतु सदोष होने की सम्भावना बनी रहती है। ‘हेतु सदोष होने पर भी प्रतिवादी उस का उद्भावन करने में समर्थ न होने से निग्रहस्थान को प्राप्त हो जाय' - ऐसा तर्क भी ठीक नहीं है क्योंकि तब दोषयुक्त साधन का कथन करने वाला वादी भी पराजय का अधिकरण बन रहा है। इस प्रकार से तो दोनों ही पराजित हो जायेंगे। इसी लिये दोष का उद्भावन न करनेवाला प्रतिवादी निग्रहस्थान को प्राप्त नहीं होता ।
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