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पञ्चमः खण्डः - का० ६० तिमिराद्युपप्लुतदृशां भवेत् ? कथं च भ्रान्तविकल्पज्ञानयोः स्वसंवेदनमभ्रान्तमविकल्पं वाऽभ्युपगच्छन् अनेकान्तं नाभ्युपगच्छेत् ? ग्राह्य-ग्राहकसंवित्त्याकारविवेकं संविदः स्वसंवेदनेनाऽसंवेदयन् संविद्रूपतां चानुभवन् कथं क्रमभाविनो विकल्पेतरात्मनोरनुगतसंवेदनात्मानमनुभवप्रसिद्धं प्रतिक्षिपेत् ?
ततः क्रम-सहभाविनः परस्परविलक्षणान् स्वभावान् यथावस्थितरूपतया व्याप्नुवत् सकललोकप्रतीतं स्वसंवेदनम् अनेकान्ततत्त्वव्यवस्थापकमेकान्तवादप्रतिक्षेपि प्रतिष्ठितमिति 'निरंशक्षणिकस्वलक्षणमन्तर्बहिश्चाऽनिश्चितमपि संवित्तिर्विषयीकरोति' इति कल्पना अयुक्तिसंगतैव, अप्रमाणप्रसिद्धकल्पनायाः सर्वत्र निरंकुशत्वात् सकलसर्वज्ञताकल्पनप्रसक्तेः। न ह्येकस्य संवित्तिरपरस्याऽसंवित्तिः सर्वत्र सम्बन्धाभावाविशेषात् । न हि वास्तवसम्बन्धाभावे परिकल्पितस्य तस्य नियामकत्वं युक्तमतिप्रसङ्गात् । ___तथा तिमिरादि रोगग्रस्त मनुष्य जो कि जानता है कि 'मुझे नेत्र में यह रोग है' उस के ज्ञान को भी एकान्त भ्रान्तस्वरूप कैसे मान सकते हैं ? उस का भ्रान्तज्ञान अपनी जात को भ्रान्तिरूप से न जानता हुआ भी यदि ज्ञानरूप से जान सकता है तो बाह्यविषय के बारे में भी ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि वह बाह्यविषय को सिर्फ विषयरूप से ही जानता है न कि सत् या असत् रूप से ? तब ऐसी स्थिति में वह सर्वथाभ्रान्त नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसे पुरोवर्ती के रूप में कुछ न कुछ सत्य वस्तु का ज्ञान है।
तथा बौद्धवादी जब भ्रान्तज्ञान के ज्ञान का और विकल्पज्ञान (जो कि बौद्धमत में प्रमाण नहीं है) का ऐसा संवेदन मानता है जो अभ्रान्त, स्वसंविदित एवं निर्विकल्पप्रत्यक्षप्रमारूप होता है, तब भ्रान्ताभ्रान्त उभयस्वरूप सिद्ध होने पर वह अनेकान्तवाद के स्वीकार को कैसे टाल सकता है ?
तथा बौद्धवादी जब ऐसा मानता है कि ज्ञान में जो ग्राह्याकार, ग्राहकाकार और संवेदनाकार है उन का भेदशः पृथक पृथक् संवेदन नहीं होता किन्तु तीनों आकार में अनुगत ज्ञानरूपता का संवेदन होता हैतब तो क्रमभावि निर्विकल्पज्ञान और विकल्पज्ञान के लिये भी ऐसा क्यों नहीं मानता कि उन दोनों का पृथक् पृथक् भेदशः ज्ञान नहीं होता किन्तु उन दोनों में अनुगत एक संवेदनरूपता का अनुभव होता हैयह तथ्य सभी लोगों को भी अनुभवसिद्ध है। जब वह ऐसा मान लेगा तो फिर अनेक क्षणों में अनुगत एक भाव के स्वीकार को कैसे टाल सकता है ?!
* निरंश-क्षणिकस्वलक्षणग्राही निर्विकल्प का प्रतिषेध * बौद्धों के सिद्धान्त की समीक्षा का निष्कर्ष यह सिद्ध करता है कि क्रमभावी या सहभावि परस्पर विलक्षण स्वभाववाले भावों का यथावस्थित स्वरूप से अवगाहन करनेवाला, सकललोक में प्रसिद्ध स्वसंवेदन ज्ञान एकान्तवाद का निराकरण कर के अनेकान्तगर्भित तत्त्वव्यवस्था की प्रतिष्ठा करता है। अत एव बौद्धों की जो यह कल्पना है कि - ‘स्वलक्षण' वस्तु निरंश एवं क्षणिक है और बाह्य-अन्तर किसी भी रूप से, निश्चय (सविकल्प) से उस का ज्ञान न होने पर भी निर्विकल्प संवेदन (दर्शन) से वह गृहीत होता है- यह कल्पना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि निर्विकल्प से अनेकांश – अक्षणिक ही स्वलक्षण गृहीत होता है ऐसी धारणा भी की जा सकती है। प्रमाण से असिद्ध वस्तु की ही कल्पना करना हो तो उस के ऊपर किसी का भी अंकुश नहीं रहेगा। फिर तो सब जीवात्मा सर्वज्ञ होने की कल्पना भी की जा सकती है। एक वस्तु का किसी एक को संवेदन हो, दूसरे को न हो - ऐसी व्यवस्था तो प्रमाण के अवलम्बन से हो सकती है, किन्तु जब निरंकुश ही कल्पना करना है तब तो एक व्यक्ति को जिस का संवेदन है उस का दूसरे को नहीं है – ऐसा कहने का मतलब
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