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________________ २८६ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् विषयव्याप्तिग्रहणस्य दूरोत्सारितत्वात् 'नाऽननुकृतान्वय-व्यतिरेकं कारणम् नाऽकारणं विषयः' ( ) इति वचनमनुमानोच्छेदकं च प्रसक्तम् । ग्राह्य-ग्राहकाकारज्ञानैकत्ववद् ग्राह्याकारस्यापि युगपदनेकार्थावभासिनश्चित्रैकरूपता एकान्तवादं प्रतिक्षिपत्येव । भ्रान्त्यात्मनश्च दर्शनस्य अन्तर्बहिश्च अभ्रान्तात्मकत्वं कथंचिद् अभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा कथं स्वसंवेदनाध्यक्षता तस्य भवेत् ? तदभावे च कथं तत्स्वभावसिद्धिर्युक्ता ? कथं च भ्रान्तज्ञानं भ्रान्तिरूपतयाऽऽत्मानमसंविदद् ज्ञानरूपताया वा अवगच्छद् बहिस्तथा नावगच्छेत् यतो भ्रान्तैकान्तरूपता * अन्वय-व्यतिरेक एवं प्रमाणविषयता की अनुपपत्ति * तदुपरांत - क्षणिक एकान्तवाद में साध्य-हेतु के बीच अन्वय-व्यतिरेक सम्बन्ध की प्रसिद्धि दुष्कर है। कारण, कोई भी एक ज्ञान हेतु और साध्य को एक साथ ग्रहण करनेवाला होता नहीं है यह पहले कह आये हैं। फलतः त्रिकालविषयभूत यानी तीन काल के साध्य और हेतु समस्त का अवगाहन करने वाली व्याप्ति सिद्ध नहीं हो सकेगी, क्योंकि अतीत-अनागत विषय असत् होने से व्याप्ति में उन का अवगाहन शक्य नहीं है। जब व्याप्ति का भी बौद्धमत में कोई ठिकाना नहीं है तब ‘जो सत् होता है वह क्षणिक होता है - शब्द भी सत् है' इत्यादि अनुमानों की प्रवृत्ति भी कैसे शक्य होगी ? दूसरी बात यह है कि बौद्धमत में प्रमाण का कारण हो उसी को प्रमाण का विषय माना जाता है, जो प्रमाणोत्पादक नहीं वह उस का विषय भी नहीं होता। व्याप्ति का ग्रहण करना हो तब तो अतीत-वर्त्तमानअनागत सभी साधनों और साध्यों को प्रमाणभूत ज्ञान में प्रविष्ट करना पडेगा, किन्तु बौद्धमत में यह सम्भव नहीं है क्योंकि अतीत अनागत पदार्थ असत् होने से ज्ञानोत्पादक नहीं है, अत एव व्याप्तिज्ञान के विषय भी नहीं बन सकते। फलतः त्रिकालविषयक व्याप्तिज्ञान का ही सम्भव नहीं रहता। तब बौद्ध ने जो विना सोचे कह दिया है कि – 'अन्वयव्यतिरेक का अनुसरण न करनेवाला कारण नहीं हो सकता और जो (ज्ञान का) कारण नहीं होता वह (ज्ञान का) विषय नहीं बन सकता' - यह विधान तो अनुमानमात्र का उच्छेदक ही सिद्ध हुआ क्योंकि अनुमान के लिये आवश्यक व्याप्तिज्ञान त्रिकालविषयक बन ही नहीं पाता। (क्योंकि अतीत-अनागत भाव असत् है, ज्ञान के कारण न होने से व्याप्तिज्ञान के विषय ही नहीं है।) तथा, पहले कहा है कि एक ही ज्ञान ग्राह्य-ग्राहक अनेक आकारवाला होने से एकानेकरूप होता है इस लिये एकान्तवाद का निरसन होता है। वैसे ही, जब एक साथ दाल-चावल आदि अनेक चीजों को देखते हैं तब उस के ज्ञान में जो ग्राह्याकार है वह भी दाल-चावल के अनेक आकारों से सम्मिलित से चित्राकार सिद्ध होता है, इस से भी एकान्तवाद को धोखा है। * शक्ति में रजत-दर्शन कथचिद अभ्रान्त * __ तथा, बौद्धमत में जो शुक्ति में रजत का दर्शन भ्रान्त माना गया है उस को भी बाह्य-अभ्यन्तर उभय प्रकार से कथंचिद् अभ्रान्त भी मानना होगा। कारण यह है कि बौद्ध स्वप्रकाशवादी है, अतः भ्रान्त दर्शन भी उस के मत में स्वसंवेदनप्रत्यक्षात्मक ही होता है। स्वसंवेदनप्रत्यक्ष का विषय जो स्वसंवेदन (भ्रान्त दर्शन) है वह तो जूठा नहीं है अत एव वही भ्रान्त दर्शन स्वसंवेदन की अपेक्षा अभ्रान्त मानना होगा। यदि वह भ्रान्त दर्शन स्वसंवेदि नहीं होगा तो वह बौद्धमत में दर्शनस्वरूप कैसे होगा ? उस को तो जड स्वरूप मानना पडेगा। तथा वही भ्रान्तज्ञान धर्मी अंश में अभ्रान्त होता है, अतः बाह्यविषय की अपेक्षा से भी कथंचिद् अभ्रान्त मानना होगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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