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________________ २७० श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् ‘इह इदमवस्थितम्' इति बुद्धयुत्पत्तिसम्भवः । किंच, 'नाऽगृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः' इति काणादानां सिद्धान्तः। न च सामान्यनिश्चयः संस्थानभेदावसायमन्तरेणोपपद्यते । यतः दूरात् पदार्थ - स्वरूपमुपलभमानो नागृहीतसंस्थानभेदः अश्वत्वादिसामान्यमुपलब्धुं शक्नोति । न च संस्थानभेदावगमस्तदाधारोपलम्भमन्तरेण सम्भवतीति कथं नेतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गः । तथाहि पदार्थग्रहणे सति संस्थानभेदावगमः तत्र च सामान्य - - विशेषावबोधः, तस्मिंश्च सति पदार्थस्वरूपावगतिः इति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् चक्रकप्रसंगो वा । किञ्च, अश्वत्वादेः सामान्यभेदस्य स्वाश्रयसर्वगतत्वे कर्कादिव्यक्तिशून्ये देशे प्रथमतरमुपजायमानाया व्यक्तेः अश्वत्वादिसामान्येन योगो न भवेत्, व्यक्तिशून्ये देशे सामान्यस्याऽनवस्थानात् व्यक्त्यन्तरादनवगमाच्च, ततः सर्वसर्वगतं तदभ्युपगन्तव्यम् एवं च कर्कादिभिरिव शाबलेयादिभिरपि तदभिव्यज्येत । न च कर्काद्यानामेव तदभिव्यक्तौ सामर्थ्यम् न शाबलेयादीनामिति वाच्यम् यतः यया प्रत्यासत्त्या विद्यमान है' ) ऐसी बुद्धि उत्पन्न होने का सम्भव नहीं है । तदुपरांत, कणादमत (वैशेषिकमत) के अनुगामियों का यह सिद्धान्त है कि 'विशेषण गृहीत न होने पर विशेष्य की बुद्धि प्रवृत्त नहीं होती ।' किन्तु यहाँ आगे चल कर कैसे इतरेतराश्रय दोष होता है यह देखिये अश्वव्यक्ति में 'अश्वत्व' सामान्य का निश्चय कैसे होगा ? जब तक अश्वादि के संस्थानविशेष का बोध नहीं होगा तब तक अश्वत्वसामान्य का बोध संभव नहीं है। कारण, दूर से पदार्थ के स्वरूप को देखने वाला संस्थानविशेष का उपलम्भ किये विना अश्वत्वसामान्य का उपलम्भ करने में सफल नहीं हो सकता । तथा संस्थान तो गुण है इस लिये आश्रय (व्यक्ति) के उपलम्भ के विना संस्थान विशेष का उपलम्भ सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में इतरेतराश्रय क्यों नहीं होगा ? देखिये व्यक्तिपदार्थ का ग्रहण होने पर संस्थानविशेष का बोध होगा, उस के बाद यानी व्यंजक संस्थानविशेष का बोध होने पर सामान्यविशेष (जातिविशेष) यानी अश्वत्वादिसामान्य का बोध होगा, और अब आप के अनुसार विशेषणरूप सामान्य का बोध होने पर ही व्यक्तिरूप पदार्थ का बोध होगा। इस प्रकार यहाँ सामान्यबोध और व्यक्तिबोध (विशेषणबोध और विशेष्यबोध) एक-दूसरे के लिये अपेक्षित होने से अन्योन्याश्रय दोष स्पष्ट है । अथवा यहाँ चक्रक दोष लगेगा क्योंकि बीच में संस्थान विशेष का बोध भी अपेक्षित है। * सामान्य की वृत्ति दोनों विकल्प में असंगत सामान्य की व्यापकता के प्रति भी दो विकल्प प्रश्न हैं सामान्य सिर्फ अपने सर्व आश्रयों में ही वृत्ति होता है या समस्त आश्रय- अनाश्रय पदार्थों में रहता है ? यदि पहला पक्ष माना जाय, अर्थात् अश्वत्वादि सामान्य को अपने आश्रयों तक ही सीमित माना जाय तब जिस देश में पहले कोई अश्वादिव्यक्ति नहीं है और अभिनव उत्पन्न हो रही है उस अश्वव्यक्ति से अश्वत्वादि सामान्य पदार्थ का योग ( = सम्बन्ध ) नहीं हो पायेगा, क्योंकि वह देश पहले व्यक्तिशून्य होने से सामान्य भी वहाँ अनुपस्थित है । अन्य व्यक्तियों से दौड कर सामान्य उस नूतनजात व्यक्ति में प्रवेश कर दे यह भी सम्भव नहीं क्योंकि वह निष्क्रिय है। यदि दूसरा पक्ष माना जाय, अर्थात् सामान्य को सर्वत्र व्याप्त माना जाय तो अश्वादि की तरह शाबलेय गौ आदि में भी अश्वत्व सामान्य की व्याप्ति होने से, अश्वादि से अश्वत्व की अभिव्यक्ति की तरह गौ - शाबलेयादि से भी अश्वत्व का व्यक्तिभावन हो जाने की विपदा खडी होगी । यदि यह कहा जाय कि 'अश्वत्व की अभिव्यक्ति का सामर्थ्य अश्व में ही सीमित रहता है अतः Jain Educationa International - — - For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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