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पञ्चमः खण्डः - का० ५६
२६९ सावधारणं नोपपत्तिमत् वस्तुभूतान्याभावमन्तरेण प्रतिनियतस्य तस्य तत्राऽसम्भवात् । अथ ततः तद् अन्यद् धर्मान्तरम् तर्हि एकरूपस्यानेकधर्मात्मकस्य हेतोस्तथाभूतस्य साध्याऽविनाभूतत्वेन निश्चितस्थानेकान्तात्मकवस्तुप्रतिपादनात् कथं न परोपन्यस्तहेतूनां सर्वेषां विरुद्धता एकान्तविरुद्धेनानेकान्तेन व्याप्तत्वात् ?!
किञ्च, हेतुः A सामान्यरूपो वोपादीयेत परैः B विशेषरूपो वा ? A यदि सामान्यरूपस्तदा तद् व्यक्तिभ्यो भिन्नमभिन्नं वा ? न तावद् भिन्नम् 'इदं सामान्यम् अयं विशेषः अयं तद्वान्' इति वस्तुत्रयोपलम्भानुपलक्षणात् । तथा च सामान्यस्य भेदेनाभ्युपगन्तुमशक्यत्वात् । न च समावायवशात् परस्परं तेषां भेदेनानुपलक्षणम् यतः समवायस्य 'इह' बुद्धिहेतुत्वमुपगीयते, न च भेदग्रहणमन्तरेण क्योंकि पक्षसत्त्व और सपक्षसत्त्व यह अन्वयात्मक है, विपक्षव्यावृत्ति व्यतिरेकात्मक है, उन दोनों में तादात्म्य होने से या तो केवल अन्वय रहेगा, या केवल व्यतिरेक रहेगा किन्तु दो नहीं रहेंगे क्योंकि अभेद होने पर द्वित्व नहीं होता। उपरांत, व्यतिरेक तो अभावात्मक ही होता है इस लिये केवल व्यतिरेकी हेतु भी अभावात्मक ठहरेगा; नतीजा यह आयेगा कि अभावात्मक होने से तुच्छस्वरूप बना हेतु अपने साध्य या धर्मी के साथ कोई सम्बन्ध धारण नहीं कर सकेगा। ___ यदि कहा जाय – 'व्यतिरेक कोई तुच्छ अभावात्मक नहीं है, हेतु का जो सभी विपक्ष में 'असत्त्व ही होता है' यही व्यतिरेक है जो कि हेतु का अपना स्वरूप ही है।' – तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'सपक्ष में ही सत्त्व' यही 'विपक्ष से निवृत्ति' रूप है (तादात्म्य होने से) उस से जब वह भिन्न नहीं है, तब ‘सपक्ष में सत्त्व ही' यहाँ जो अवधारण (भारपूर्वक कथन) के साथ सत्त्व दर्शाया जाता है वही असंगत हो जायेगा क्योंकि वह सिर्फ 'असत्त्व ही' नहीं किन्तु (विपक्ष में) 'असत्त्वरूप भी' है। तात्पर्य, अवधारण के साथ सत्त्व का प्रतिनियत प्रतिपादन तभी हो सकता है जब कि व्यवच्छेद्यभूत अन्य वस्तुभूत (तुच्छ नहीं) अभाव का अंगीकार किया जाय, क्योंकि 'सत्त्व ही' - यहाँ अवधारण से तुच्छ अभाव का व्यवच्छेद शक्य नहीं है, जो तुच्छ है वह कहीं व्यवच्छेद्य नहीं होता। यदि आप ऐसा कहते हैं कि - सपक्ष में सत्त्व का पृथक् धर्म है और विपक्ष से व्यावृत्ति यह स्वतन्त्र धर्मान्तर है दोनों एक नहीं है। तब तो हेतु एक है और फिर भी पृथक् पृथक् अनेक रूप होने से अनेक धर्मात्मक है, ऐसा हेतु ही अपने साध्य से व्याप्त होता है यह निश्चय जब फलित हुआ तो यही अनेकान्तात्मक वस्तु का प्रतिपादन हुआ। ऐसी स्थिति में एकान्तवादी के द्वारा उपन्यस्त समस्त हेतु विरुद्ध क्यों नहीं होगा जब कि वे हेतु एकान्तभिन्न साध्य से व्याप्त होने के बदले अनेकान्तात्मक साध्य से व्याप्त सिद्ध होते हैं ?!!
* सामान्यात्मक हेतु का प्रयोग निर्हेतुक * एकान्तवादियों के सामने यह प्रश्न है कि प्रयोग किया जानेवाला हेतु A सामान्यस्वरूप है या B विशेषस्वरूप ? A यदि हेतु सामान्यरूप है तो वह व्यक्तियों से भिन्न होता है या अभिन्न ? भेदपक्ष संगत नहीं हो सकता, क्योंकि भेद हो तब ‘यह सामान्य, यह विशेष और यह सामान्यवान्' ऐसी भेदशः तीन खण्डवाली प्रतीति होनी चाहिये किन्तु वैसी प्रतीति नहीं होती। यदि कहा जाय कि – “समवायसम्बन्ध के प्रभाव से वैसी भेदोल्लेखकारी सखण्ड प्रतीति नहीं होती' – तो यह ठीक नहीं है। समवाय तो 'यहाँ' ऐसी बुद्धि के हेतुरूप में आपने स्वीकार किया है, भेदग्रहण के विना ‘यहाँ यह विद्यमान है' (= 'तन्तु में वस्त्र
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