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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ५६ २६७ बाधितविषयत्वमागमबाधितविषयत्वं वा अगमकतानिबन्धनमस्यास्ति। न चानुमानस्य तुल्यबलत्वान्नानुमानं प्रति बाधकता सम्भविनीति वक्तव्यम् निश्चितप्रतिबन्धलिङ्गसमुत्थस्यानुमानस्याऽनिश्चितप्रतिबन्धलिङ्गसमुत्थेन अतुल्यबलत्वात् । अत एव न साधर्म्यमात्राद् हेतुर्गमकोऽपि तु आक्षिप्तव्यतिरेकात् साधर्म्यविशेषात् । नापि व्यतिरेकमात्रात् किन्त्वङ्गीकृतान्वयात् तद्विशेषात् । न च परस्पराननुविद्धोभयमात्रादपि अपि तु परस्परस्वरूपाऽजहद्वृत्तिसाधर्म्य-वैधर्म्यरूपत्वात् । न च प्रकृतहेतौ प्रतिबन्धनिश्चायकप्रमाणनिबन्धनं त्रैरूप्यं निश्चितमिति तदभावादेवास्य हेत्वाभासत्वम् न पुनरसत्प्रतिपक्षत्वाऽबाधितविषयत्वापररूपविरहात् । यदा च पक्षधर्मत्वाद्यनेकवास्तवरूपात्मकमेकं लिङ्गमभ्युपगमविषयस्तदा तत् तथाभूतमेव वस्तु प्रसाधयतीति कथं न विपर्ययसिद्धिः ?! * अबाधितत्व का निश्चय दुष्कर * अबाधितविषयता का निश्चय, अविनाभाव के निश्चय से भी नहीं हो सकता। कारण यह है कि जो हेतु में पंचरूपता मानते हैं उन के मत में अविनाभाव का निश्चय भी पांचरूपों के निश्चय पर निर्भर है और उन पाँच रूपों में ही एक उन के मत में अबाधितत्व है। अतः अबाधितविषयत्व के निश्चय के विना अविनाभाव का निश्चय शक्य नहीं है। कालात्ययापदिष्ट का अर्थनिरूपण करते हुए यह जो कहा जाता है कि - साध्यात्मक कर्म प्रत्यक्ष या आगम से बाधित होने पर जो बाद में हेत प्रयक्त किया जाता है उसी को कालात्ययापदिष्ट कहते हैं। ऐसा कहने पर तो 'यह देवदत्त मूर्ख है क्योंकि वह आप का पुत्र है, जैसे कि उभयसम्मत आप का दूसरा मूर्ख पुत्र ।' – इस प्रयोग में हेतु में साधकता प्रसक्त होगी। क्यों ? इस लिये कि यहाँ हेतु तभी असाधक कहा जा सकता है जब कि इस में प्रत्यक्षबाधितविषयता या आगमबाधितविषयता सिद्ध हो सके, किन्तु यहाँ वह साक्षात् सम्भव नहीं है। यहाँ तो सकलशास्त्र के व्याख्यानस्वरूप लिंग से उत्पन्न अमूर्खत्व यानी प्राज्ञत्व का अनुमान ही बाधक हो सकता है। इसलिये यहाँ प्रत्यक्षबाधितविषयता अथवा आगमबाधितविषयता रूप असाधकता का मूल तो है ही नहीं तब आप की कालात्ययापदिष्टत्व की व्याख्या के अनुसार यहाँ देवदत्त में 'आप का पुत्र होना' यह हेतु क्यों मूर्खत्व-साधक नहीं होगा। आप की कालात्ययापदिष्टत्व की व्याख्या में आपने अनुमानबाधितविषयता का तो प्रवेश ही नहीं किया है। यदि यह कहा जाय कि - अनुमान अनुमान समान बल होते हैं अतः वे एक-दूसरे के बाधक नहीं हो सकते – तो यह भाषणयोग्य नहीं है, क्योंकि दोनों अनुमान समान बल हो ऐसा नहीं है, जो सुनिश्चित व्याप्तिवाले लिंग से अनुमान होता है वह अधिक बलवान होता है जब कि अनिश्चित व्याप्तिवाला अनुमान हीनबल होता है। यही सबब है कि सिर्फ सपक्षवृत्ति हेतुसाध्ययुगल के साधर्म्य मात्र से हेतु साध्य-साधक नहीं बन जाता, किन्तु व्यतिरेकव्याप्ति विशिष्ट, सपक्ष के साधर्म्य से हेतु साधक होता है। अर्थात्, ‘यदि साध्य न हो तो हेतु भी न हो' इस प्रकार व्यतिरेकाक्षेप' के योग्य सपक्ष के साधर्म्य से ही हेतु में साधकता हो सकती है। तथा, व्यतिरेकमात्र यानी विपक्ष के वैधर्म्यमात्र से हेतु साध्यसाधक नहीं बन जाता किन्तु जहाँ विपक्ष में ‘हेतु होता तो साध्य अवश्य होता' इस प्रकार के अन्वय के आक्षेप के योग्य विशिष्ट वैधर्म्य हो उस स्थल में ही हेतु साध्य का साधक हो सकता है। तथा, परस्परनिरपेक्ष अर्थात् केवल साधर्म्य अथवा केवल वैधर्म्य मात्र से भी हेतु साधक नहीं बन सकता किन्तु परस्पर अजहद्वृत्ति यानी परस्पर सापेक्ष साधर्म्य-वैधर्म्य से ही हेतु साधक हो सकता है। पक्ष-सपक्षान्यतरत्वरूप अथवा एकशाखोत्पत्तिरूप जो प्रकृत हेतु है उस में व्याप्तिनिश्चयप्रतिपादक प्रमाण का प्रयोजक 'तीन लक्षण युक्तता' ही निश्चित नहीं है अत एव उस के विरह में यह हेतु हेत्वाभास मानना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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