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________________ २६२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् साधयतीति वक्तुं युक्तम् । अथ द्वितीयोऽपि वस्तुधर्मस्तत्र तथैव निश्चितः। न, परस्परविरुद्धधर्मयोस्तदविनाभूतयोकत्र धर्मिण्ययोगात्, योगे वा नित्यानित्यत्वयोः शब्दाख्ये धर्मिण्येकदा सद्भावात् अनेकान्तरूपवस्तुसद्भावोऽभ्युपगतः स्यात्, तमन्तरेण तद्धत्वोः स्वसाध्याविनाभूतयोः तत्रायोगात्। अथ द्वयोस्तुल्यबलयोरेकत्र प्रवृत्तौ परस्परविषयप्रतिबन्धान स्वसाध्यसाधकत्वम् । असदेतत्, स्वसाध्याविनाभूतयोर्धर्मिणि तयोरुपलब्धिरेव स्वसाध्यसाधकत्वमिति कुतस्तत्सद्भावे परस्परविषयप्रतिबन्धः ? तत्प्रतिबन्धो * एक धर्मी में विरुद्ध दो धर्म के समावेश से स्याद्वाद-सिद्धि * ___ यह जो पहले कहा है (२५१-३) कि ‘शब्द में अनित्यत्वसाधन के प्रयोग काल में नित्यधर्मानुपलब्धि हेतु विपक्ष में नहीं रहता किन्तु अनित्यपक्ष में ही वर्तमान है अतः सिर्फ सपक्ष में ही रहने से यह हेतु अनैकान्तिक नहीं है किन्तु प्रकरणसम है।' – यह विधान असंगत है क्योंकि यदि साधनकाल में हेतु विपक्ष से सर्वथा व्यावृत्त और पक्षवृत्ति होगा तो वह अनित्यत्वरूप अपने साध्य की सिद्धि किये विना नहीं रह सकता। कारण, परस्पर उलटे स्वरूप वाले दो धर्मी में से एक धर्मी में किसी एक धर्म के अस्तित्व का व्यवच्छेद होने पर दूसरे में उस धर्म की वृत्ति का निश्चय हो कर ही रहेगा क्योंकि और कोई विकल्प ही वहाँ नहीं है। जब हेतु का विपक्ष से व्यवच्छेद हो गया तो सपक्षवृत्ति का निश्चय हो कर ही रहेगा क्योंकि सपक्ष और विपक्ष परस्पर उलटे स्वरूपवाले हैं। अतः ‘हेतु अनित्यपक्ष में वृत्ति है' इस प्रकार जब वस्तुधर्म (हेतु) का निश्चय हो जाय तब 'अपने साध्य को वह नहीं साध सकता' ऐसा कहना उचित नहीं है। यदि कहा जाय कि – 'जैसे नित्यधर्मानुपलब्धिरूप वस्तुधर्म का “विपक्ष में न होना, सपक्ष में होना' ऐसा निश्चय है वैसे ही नित्यपक्ष में अनित्यधर्मानुपलब्धिरूप प्रतिहेतु वस्तुधर्म का भी वैसा ही निश्चय है, इस लिये किसी भी एक से स्व साध्य निश्चय नहीं हो सकेगा।' – तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि आप के मतानसार परस्पर विरोधी धर्मों का या उन के अविनाभावी व्याप्य धर्मों का एक धर्मी में संगम अशक्य है। हाँ स्याद्वादीयों की तरह आप उन का समावेश मान लेते हैं तब तो शब्दात्मक एक धर्मी में एक काल में नित्यत्व-अनित्यत्व उभय का सद्भाव उक्त दो अनुमानों से सिद्ध हो जाने से आप को भी अनेकान्तात्मक वस्तुस्वरूप का स्वीकार करना पडेगा, क्योंकि ऐसा स्वीकार किये विना अपने साध्य के अविनाभावी दो हेतुओं का शब्दात्मक धर्मी में समावेश घटित नहीं होगा। यदि कहा जाय – 'एक धर्मी में प्रयुक्त किये गये दोनों हेतु समान बल वाले होने से एक-दूसरे के साध्य की सिद्धि में प्रतिबन्ध लगा देंगे, अतः अपने अपने साध्य की सिद्धि नहीं कर पायेंगे।' - तो यह बात गलत है, पहले ही कह आये हैं कि हेतु के उपलम्भ से साध्य की उपलब्धि पृथक् होती है ऐसा नहीं है, अपने साध्य के अविनाभूत हेतु का उपलम्भ ही गर्भितरूप से साध्य का उपलम्भ है। एक धर्मी में स्वसाध्यव्याप्त दो धर्मों का उपलम्भ जब होगा तब उस के साथ साथ ही उन के अपने अपने साध्य का उपलम्भ अविलम्ब हो जायेगा, फिर एक-दूसरे को प्रतिबन्ध लगाने का अवकाश ही कहाँ रहता है ?! प्रतिबन्ध होगा तो ऐसा होगा कि एक स्वसाध्याविनाभूत हेतु का उपलम्भ एक धर्मी में हुआ तो दूसरे तथाविध प्रतिहेतु का उपलम्भ वहाँ नहीं होगा। किन्तु आपने तो दोनों हेतु में त्रैरूप्य का स्वीकार किया है, अतः दोनों हेतु की अप्रवृत्ति स्वरूप प्रतिबन्ध को यहाँ अवकाश ही नहीं है, क्योंकि दोनों हेतु की एक धर्मी में प्रवृत्ति (उपलब्धि) और अप्रवृत्ति ये दोनों क्रमशः भाव-अभाव स्वरूप होने से परस्पर एक दूसरे को छोड कर रहने के स्वभाव वाले ही हैं, अतः एक धर्मी में एक के होने पर दूसरे की, यानी दोनों हेतु की एक धर्मी में प्रवृत्ति होने पर अप्रवृत्ति वहाँ नहीं हो सकती जिस से प्रतिबन्ध लब्धप्रसर हो सके। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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