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पञ्चमः खण्डः - का० ५६
२६१ तत्र निश्चिता तर्हि कथं न संदिग्धासिद्धो हेतुदिनं प्रति ? प्रतिवादिनस्तत्वसौ स्वरूपासिद्ध एव नित्यधर्मोपलब्धेस्तत्र तस्य सिद्धेः ? यदपि – उभयानुपलब्धिनिबन्धना यदा द्वयोरपि चिन्ता तदैकदेशोपलब्धेरन्यतरेण हेतुत्वेनोपादाने कथं चिन्तासम्बन्ध्येव द्वितीयः तस्याऽसिद्धतां वक्तुं पारयति ? – इत्याद्यभिधानम् तदपि असंगतम् । यतो यदि द्वितीयः संशयापन्नत्वात् तत्रासिद्धतां नोद्भावयितुं समर्थः, प्रथमोऽपि तर्हि कथं संशयितत्वादेव तस्य हेतुतामभिधातुं शक्तो भवेत् ? अथ संशयितोऽपि तत्र हेतुतामभिदध्यात् तद्यसिद्धतामप्यभिदध्यात् भ्रान्तेरुभयत्राऽविशेषात् । ___ यदपि ‘साधनकाले नित्यधर्मानुपलब्धिरनित्यपक्ष एव वर्त्तते न विपक्षे' इत्याद्यभिधानम् तदप्यसंगतम् विपक्षादेकान्ततोऽस्य व्यावृत्तौ पक्षधर्मत्वे च स्वसाध्यसाधकत्वमेव, अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकव्यवच्छेदेनापरत्र वृत्तिनिश्चये गत्यन्तराभावात् । न हि योऽनित्यपक्ष एव वर्त्तमानो निश्चितो वस्तुधर्मः स तन्न
* अनुपलब्धि हेतु में प्रसज्य-पर्युदास के दो विकल्प * प्रकरणसम के उदाहरण में, नित्यधर्मानुपलब्धि को हेतु दिखानेवाले नैयायिक के सामने यह भी प्रश्न है कि यहाँ अनुपलब्धि शब्द से प्रसज्य प्रतिषेध सम्मत है या पर्युदास ? पहला पक्ष तो ठीक नहीं है क्योंकि प्रसज्यप्रतिषेध पक्ष में अनुपलब्धि का अर्थ होगा उपलब्धि का अभाव, जो कि तुच्छ होता है, गधे के सींग की तरह तुच्छ अनुपलब्धि कभी भी अपने साध्य को सिद्ध नहीं कर सकती। यदि दूसरा पर्युदासवाला पक्ष स्वीकृत हो तो हेतु का फलितार्थ यह होगा कि अनित्यधर्मोपलब्धि हेतु है। यदि यह हेतु शब्द में सिद्ध है तब तो अनायास अनित्यता की सिद्धि हो जायेगी, प्रकरणसमता को अवकाश ही कहाँ है ? यदि कहा जाय कि – 'नित्यत्व-अनित्यत्व की चिन्ता करने वाला पुरुष पर्युदास निषेध के अर्थ में जब नित्यधर्मानुपलब्धि को, यानी अनित्यधर्मोपलब्धि को हेतु बना कर अनित्यत्व की सिद्धि के लिये प्रयोग कर रहा है इस से ही यह फलित होता है कि उस के लिये प्रयोगकाल में, शब्द में अनित्यधर्मोपलब्धि निश्चित नहीं है अर्थात् संदिग्ध है।' – तो इसका मतलब यही होगा कि खुद वादी के मत में भी हेतु संदिग्धासिद्ध है। तथा प्रतिवादी के लिये तो वह स्वरूपासिद्ध ही है, क्योंकि वह शब्द में नित्यत्व-सिद्धि के लिये अनित्यधर्मानुपलब्धि को ही हेतु कर रहा है, अतः उसके मत में तो शब्द में नित्यधर्मोपलब्धि (पर्युदास अर्थ में) हेतु के रूप में सिद्ध है। तात्पर्य, हेतु में असिद्धि दोष ही हुआ न कि प्रकरणसमता का।
यदि यह कहा जाय – “शब्द में जब नित्यधर्म या अनित्य धर्म दोनों में से एक की भी उपलब्धि नहीं है, उस स्थिति में वादी-प्रतिवादी दोनों जब चिन्ता (चर्चा) कर रहे हैं तब यदि उन में से कोई एक पुरुष किसी एक अंश की उपलब्धि को (मान लो कि नित्यधर्मोपलब्धि को) हेतु बना कर रखे तो दूसरे चिन्ताकारी पुरुष को क्या अधिकार है कि वह उभयानपलब्धि अवस्था में उक्त हेत को असिद्ध
मेट घोषित करे ? तात्पर्य, कि यहाँ असिद्धि का उद्भावन नहीं हो सकता किन्तु विपरीत हेतु लगा कर प्रकरणसमता का ही प्रदर्शन हो सकता है।" - यह कथन भी असंगत है। क्योंकि यदि उभयानुपलब्धिमूलक संशय के कारण प्रतिवादी वादी के अनित्यधर्मोपलब्धि हेतु में असिद्धि दोष का उद्भावन करने में निष्फल रहता है तो पहला वादी तथाविध संशय के कारण उस हेतु को हेतु के रूप में प्रस्तुत करने का साहस करने में कैसे सफल होता है ? यदि संशय होने पर भी वह उस हेतु का प्रयोग करता है तो दूसरा वादी संशय होने पर भी वहाँ असिद्धि दोष का निरूपण सरलता से कर सकता है, क्योंकि भ्रान्ति तो वादी-प्रतिवादी दोनों को हो सकती है, अतः प्रतिवादी को 'कदाचित् मेरी भ्रान्ति होगी तो' ऐसा डर रखने की जरूर क्या है ?!
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