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पञ्चमः खण्डः - का० ५६
२५९ धर्मिण्युपादीयमानोऽपि हेतुः साध्यस्योपस्थापको न स्यात् साध्यधर्मिणि साध्यमन्तरेणाऽपि हेतो सद्भावाभ्युपगमात्, तद्व्यतिरिक्त एव धर्म्यन्तरे तस्य साध्येन प्रतिबन्धग्रहणात् । न चान्यत्र स्वसाध्याऽविनाभावित्वेन निश्चितोऽन्यत्र साध्यं गमयेत् अतिप्रसङ्गात् ।।
__ अथ यदि साध्यधर्मान्वितत्वेन साध्यधर्मिण्यपि हेतुरन्वयप्रदर्शनकाल एव निश्चितस्तदा पूर्वमेव साध्यधर्मस्य साध्यधर्मिणि निश्चयात् पक्षधर्मताग्रहणस्य वैयर्थ्यम् । असदेतत्, यतः प्रतिबन्धप्रसाधकेन प्रमाणेन सर्वोपसंहारेण 'साधनधर्मः साध्यधर्माभावे क्वचिदपि न भवति' - इति सामान्येन प्रतिबन्धनिश्चये, पक्षधर्मताग्रहणकाले यत्रैव धर्मिण्युपलभ्यते हेतुस्तत्रैव स्वसाध्यं निश्चाययतीति पक्षधर्मताग्रहणस्य विशेषविषयप्रतिपत्तिनिबन्धनत्वान्नानुमानस्य वैयर्थ्यम् । न हि विशिष्टधर्मिण्युपलभ्यमानो हेतुस्तद्गतसाध्य - जायेगा।
निष्कर्ष, अनुमेय यानी पक्ष से भिन्न साध्यधर्मविशिष्ट में और साध्यधर्मशून्य में, उभय में रहनेवाला हेतु अनैकान्तिक कहा जायेगा और साध्यधर्मशून्य धर्मी में ही रहता हो ऐसे हेतु को विरुद्ध कहा जायेगा। वही हेतु सद्धेतु यानी साध्यसाधक होता है जो निश्चितरूप से विपक्ष से व्यावृत्त हो, निश्चितरूप से सपक्ष में वर्तमान हो और निश्चितरूप से पक्षवृत्ति भी हो। नित्यधर्मानुपलब्धिरूप हेतु विपक्षभूत नित्य पदार्थ से व्यावृत्त जरूर है, किन्तु फिर भी अपने साध्य का साधक नहीं है क्योंकि उस हेतु को अपने अनित्यत्व साध्य के साथ व्याप्ति प्रसिद्ध नहीं है। ऐसा नहीं है कि वह हेतु विपक्षवृत्ति है इसलिये व्याप्ति प्रसिद्ध नहीं है, किन्तु प्रकरणसम होने से ही उस हेतु में अपने साध्य की व्याप्ति निश्चित नहीं हो सकती। तथा, एकशाखोत्पत्ति हेतु तो पूर्व में कहे मुताबिक कालात्ययापदिष्ट है इसीलिये वहाँ व्याप्ति अप्रसिद्ध है। तात्पर्य, प्रकरणसम और कालात्ययापदिष्ट को भी हेत्वाभास मानना चाहिये।
* विपक्षीभूतपक्ष में साध्यनिश्चय का अनिष्ट - उत्तरपक्ष * __ व्याख्याकार कहते हैं कि यह विधान गलत है। आपने जो कहा है विपक्ष में साध्य के न रहने पर न रहनेवाला और सपक्ष में रहनेवाला हेतु साध्य साधक होता है – उसका मतलब यह हुआ कि हेतु की अपने साध्य के साथ व्याप्ति का ग्रहण पक्षात्मक धर्मी सहित अन्य धर्मीयों में हो ऐसा आप को अभिप्रेत नहीं है किन्तु पक्षात्मक धर्मी को छोड कर अन्य धर्मीयों में ही हेतु में स्वसाध्य की व्याप्ति का ग्रहण इष्ट है। तब ऐसा मानने पर पक्ष में हेतु का भान होने पर भी उस से अपने साध्य का प्रकाशन नहीं हो सकेगा, क्योंकि व्याप्ति तो अन्य धर्मियों में ही अभिप्रेत है, पक्षात्मक धर्मी में नहीं, अर्थात् साध्यधर्मी में तो साध्य के न होने पर भी अगर हेतु रहता है तो वह आप को मान्य है, क्योंकि आप के मतानसार तो हेत में साध्य की व्याप्ति का ग्रहण सिर्फ अन्यधर्मी में ही इष्ट है। ऐसा नहीं हो सकता कि अन्यधर्मी में (यानी पाकशाला आदि में) हेतु की अपने साध्य के साथ व्याप्ति का ग्रहण किया गया हो तो इतर धर्मी (पर्वतादि) में भी साध्य का निश्चय करा सके। यदि ऐसा मानेंगे तो जलहृदादि में साध्य के निश्चय का अतिप्रसंग हो जायेगा।
* हेतु में पक्षधर्मताग्रहण की सार्थकता * नैयायिक :- हेतु की व्याप्ति के निरूपणकाल में, साध्यधर्मी यानी पक्ष को भी हेतु-अधिकरण के रूप में ग्रहण करके यदि वहाँ भी साध्यधर्म-अविनाभावरूप से हेतु का निश्चय किया जा चुका है, तो वहाँ तथाविध हेतु के बल पर साध्यधर्म का भी उसी वक्त निश्चय हो चुका रहेगा। अब वर्तमान में जब कि साध्यनिश्चय पहले ही हो गया है तब हेतु में पक्षवृत्तित्व के ग्रहण का क्या मतलब ?
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