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________________ २५८ __ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् संदिग्धसाध्यधर्मा धर्मी हेतोराश्रयत्वेनैष्टव्य इति । यदि अनैकान्तिकस्तत्र वर्तमानो हेतुः, धूमादिरपि तर्हि तथाविध एव स्यात् तस्यापि एवं संदिग्धव्यतिरेकित्वात् । यदि हि विपक्षवृत्तित्वेन निश्चितो यथाऽगमकस्तथा संदिग्धव्यतिरेक्यपि, अनुमानप्रामाण्यं परित्यक्तमेव भवेत् । ततोऽनुमेयव्यतिरिक्ते साध्याभाववत्येव तु वर्त्तमानः पक्षधर्मत्वे सति विरुद्धः इत्यभ्युपगन्तव्यम् । यश्च विपक्षाद्व्यावृत्तः सपक्षे चाऽनुगतः पक्षधर्मो निश्चितः स स्वसाध्यं गमयति । प्रकृतस्तु यद्यपि विपक्षाद् व्यावृत्तस्तथापि न स्वसाध्यसाधकः प्रतिबन्धस्य स्वसाध्येनाऽनिश्चयात् । तदनिश्चयश्च न विपक्षवृत्तित्वेन, किन्तु प्रकरणसमत्वेन, एकशाखाप्रभवत्वादेस्तु कालात्ययापदिष्टत्वेनेति । असदेतत्, यतो यदि धर्मिव्यतिरिक्ते धर्म्यन्तरे हेतोः स्वसाध्येन प्रतिबन्धोऽभ्युपगम्यते तदा हेतु संदिग्ध विपक्षव्यावृत्ति वाला हो जाने से वह अनैकान्तिक कहा जायेगा। (यहाँ संदिग्धानैकान्तिक हेत्वाभास होगा।) * नित्यधर्मानुपलब्धि हेतु में अनैकान्तिता का विरोध-नैयायिक * यहाँ संदिग्धसाध्यधर्मवाले पक्ष को ले कर बताये गये अनैकान्तिक दोष के निवारण के लिये अनैकान्तिक और विरुद्ध में अन्तर स्पष्ट करता हुआ नैयायिक कहता है – साध्यधर्मी से अतिरिक्त जो धर्मी है वहाँ साध्य का अभाव ही रहता हो, फिर भी यदि हेतु वहाँ वर्त्तमान हो तो उसको विरुद्ध हेत्वाभास कहा जायेगा, किन्तु यदि वैसे धर्मी में कभी साध्य के रहने पर हेतु रहता हो, कभी साध्य के न रहने पर भी हेतु रहता हो - तो ऐसे हेतु को अनैकान्तिक हेत्वाभास कहा जाता है। नैयायिक यहाँ स्पष्टता करना चाहते हैं कि जो साध्यधर्मी है, यानी जिस धर्मी में साध्य सिद्ध किया जा रहा है उस धर्मी को विपक्ष नहीं माना जा सकता। यदि उस में साध्य का दर्शन नहीं होता इतने मात्र से उसको विपक्ष मान लिया जाय तो सर्वत्र हेतु विपक्षवृत्ति बन जाने से असद् हेतु बन बैठेगा। जब तक साध्यधर्मी में साध्य सिद्धि के लिये हेतु प्रयोग नहीं किया गया और अब किया जा रहा है, तब हेतुप्रयोग के पहले तो प्रत्येक साध्यधर्मी में यह संदेह होता ही है कि वह साध्यधर्म का सच्चा आश्रय है या नहीं है, यह संदेह तो उल्टा अनुमान में सहायक होता है, विरोधी नहीं, इसलिये उसको संदेह और उसके आधार पर अनैकान्तिक दोष दिखाना गलत है। यदि साध्यसिद्धि के पहले संदेह होने के बदले धर्मी में साध्याभाव निश्चित रहेगा, तब साध्याभाव के निश्चायक प्रमाण से साध्यसिद्धि बाधित हो जाने पर हेतु के प्रतिपादन को अवकाश ही नहीं रहता। ऐसे ही, यदि साध्यसिद्धि के पहले ही साध्य वहाँ प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाण से निश्चित है, तब तो धर्मी का साध्यधर्मविशिष्टतया निश्चय हो गया, अब हेतुप्रयोग करना निरर्थक है, क्योंकि हेतुप्रयोग से जिस साध्य का निश्चय करना है वह तो पहले ही प्रत्यक्षादि से निश्चित हो चुका है। इस चर्चा का परिणाम यह है कि हेतु का आश्रय वही इष्ट है जिस धर्मी में साध्यधर्म का संदेह हो, न कि उसका निश्चय, न तो उसके अभाव का निश्चय । यदि ऐसे संदिग्धसाध्यधर्म से विशिष्ट धर्मी में रहनेवाले हेतु को अनैकान्तिक घोषित किया जायेगा, तो धूमादि हेतु भी संदिग्ध अग्निवाले पर्वतादि में रह जाने से, अनैकान्तिक दोषग्रस्त हो बैठेगा, क्योंकि धूम हेतु का भी अग्निविरहविशिष्ट धर्मी से व्यतिरेक यानी व्यावृत्ति संदेहग्रस्त है। तात्पर्य यह है कि पक्ष में ही विपक्षवृत्तित्वेन संदिग्ध हेतु अनैकान्तिक नहीं होता, यदि विपक्षवृत्तित्वेन निश्चित हेतु की तरह वह भी अनैकान्तिक मान लिया जाय तो साध्यधर्मी भी विपक्षरूप में सर्वदा संदिग्ध रहने से और सद्हेतु भी उस में वर्तमान रहने से सब कोई हेतु अनैकान्तिकदोषग्रस्त हो जायेगा। नतीजा यह होगा कि अनुमान के प्रामाण्य का ही उच्छेद हो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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