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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् प्रत्यक्षागमबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तः कालात्ययापदिष्टोऽपि हेत्वाभासोऽपरोऽभ्युपगतः, यथा ‘पक्वान्येतान्याम्रफलानि, एकशाखाप्रभवत्वादुपयुक्तफलवत्' । अस्य हि रूपत्रययोगिनोऽपि प्रत्यक्षबाधितकर्मानन्तरप्रयोगात् कालात्ययापदिष्टता अगमकत्वे निबन्धनम् । हेतोः कालोऽदुष्टकर्मानन्तरं प्रयोगः, प्रत्यक्षादिविरुद्धस्य तु दुष्टकर्मानन्तरं प्रयोगात् हेतुकालव्यतिक्रमेण प्रयोगः, तस्माच्च कालात्ययापदिष्टशब्दाभिधेयता हेत्वाभासता च । तदुक्तं न्यायभाष्यकृता 'यत् पुनरनुमानं प्रत्यक्षाऽऽगमविरुद्धं न्यायाभासः स इति' (वात्स्या० भा० पृ० ४ पं० ५ ) । तदेवं पञ्चलक्षणयोगिनि हेतावविनाभावपरिसमाप्तेः तत्पुत्रत्वादौ तु त्रैलक्षण्येऽपि कालात्ययापदिष्टत्वान्न गमकत्वम् इति नैयायिकाः । २५६ असदेतत्, असिद्धादिव्यतिरेकेणापरस्य प्रकरणसमादेः हेत्वाभासस्याऽयोगात् । यच्च प्रकरणसमस्य ‘अनित्यः शब्दः अनुपलभ्यमाननित्यधर्मकत्वात्' इत्युदाहरणं प्रदर्शितम् तदसंगतमेव । यतोऽनुपलभ्य - जो कहा है। वह भी उपरोक्त सामान्य विशेष चर्चा के प्रकाश में निरस्त हो जाता है। फलितार्थ यही है कि अन्यतरत्व हेतु में, हेतु के प्रतिवादिस्वीकृत तीनों लक्षण होने पर भी प्रकरणसम होने से ही यह हेतु साध्य का गमक यानी साधक नहीं हो सकता । * कालात्ययापदिष्ट स्वतन्त्र हेत्वाभास * जैसे प्रकरणसम हेतु हेत्वाभास है वैसे ही एक और भी हेत्वाभास है जिस को नैयायिक मत में कालात्ययापदिष्ट कहा जाता है। कर्म यानी साध्य का निर्देश जब प्रत्यक्ष अथवा आगम से विरुद्ध हो, तब उस दशा में जिस हेतु का प्रयोग किया जाता है उस को कालात्ययापदिष्ट (बाधित ) कहा जाता है । उदा० 'ये आम्रफल पके हुए हैं क्योंकि पूर्वभक्षित फल की समान शाखा में उत्पन्न है, जैसे कि पूर्वभक्षित आम्रफल ।' यहाँ 'एकशाखोत्पत्ति’ हेतु पक्षधर्म है, सपक्षधर्म है और विपक्षव्यावृत्त भी है । तीनों लक्षण से युक्त होने पर भी उन आम्रफलों में पक्वता ( नरमाई इत्यादि) के विरुद्ध कठोरता प्रत्यक्ष सिद्ध है, अत एव पक्वतास्वरूप साध्य (यानी कर्म ) प्रत्यक्षबाधित है, प्रत्यक्ष बाध होने पर भी यहाँ पक्वता की सिद्धि है यही कालात्ययापदिष्टता है जो हेतु में साध्य की असाधकता का निमित्त है । शब्दार्थ देखिये – काल यानी हेतु का अबाधित कर्म होने पर प्रयोग करना । जब कर्म प्रत्यक्षादिविरुद्ध है तब बाधित कर्म लक्षित होने के बाद जो हेतु का प्रयोग किया जाता है वह हेतु काल का उल्लंघन कर के होता है, अत एव उस को ‘कालात्ययापदिष्ट' शब्द से और हेत्वाभासरूप में व्यवहृत किया जाता है। न्यायभाष्यकार वात्स्यायन लिये एकशाखोत्पत्ति हेतु का प्रयोग किया जा रहा कहा प्रत्यक्ष अथवा आगम से विरुद्ध जो अनुमान प्रयोग किया जाय वह न्यायाभासात्मक होता है । नैयायिक की उपरोक्त चर्चा का सार यह है कि अविनाभाव अर्थात् व्याप्ति का निवेशन पञ्च लक्षण (पक्षधर्मतासपक्षवृत्तित्व-विपक्षव्यावृत्ति-असत्प्रतिपक्षितत्व अबाधितत्व) वाले हेतु में ही निर्विवाद सिद्ध होता है । श्यामत्व साधक तत्पुत्रत्व आदि हेतु में प्राथमिक तीन लक्षणों के होने पर भी वह कालात्ययापदिष्ट होने से, अर्थात् अबाधित न होने से साध्य का साधक नहीं हो सकता । * हेत्वाभास पाँच नहीं, तीन-उत्तरपक्ष नैयायिकों की ओर से पंच हेत्वाभास का समर्थन किया गया - उस के सामने व्याख्याकार श्री अभयदेवसूरिजी अब कहते हैं कि पाँच हेत्वाभास का विधान गलत है । यहाँ संदर्भ का स्मरण कर लिया जाय ५६ वीं मूल गाथा में यह कहा गया है कि एकान्तवादी साधर्म्य अथवा वैधर्म्य से साध्य सिद्धि करे फिर भी तत्पुत्रत्वादि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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