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पञ्चमः खण्डः - का० ५६
२५५ लोकव्यवहाराच्छब्दार्थसम्बन्धव्युत्पत्तिः, तत्र च 'पक्ष' शब्दस्य न सपक्षे प्रवृत्तिः नापि 'सपक्ष' शब्दस्य पक्षे। यथा चानयोः संकेतादपि नान्यत्र वत्तिः एवं 'अन्यतर' शब्दस्य सामान्ये संकेतितस्य न विशेष एव वृतिः । उभयाभिधायकत्वे तु विवक्षावशेनान्यतरत्र नियमः। न चैवमपि विशेषे तस्य वृत्तौ दूषणं तदवस्थमेव; एवं दोषोद्भावने कस्यचित् सम्यग्धेतुत्वानुपपत्तेः, कृतकत्वादेरपि पक्षधर्मत्वविवक्षायां विशेषरूपत्वादनुगमाभावात् सपक्षविशेषितस्य पक्षधर्मत्वाऽयोगात् । अथ कृतकत्वमात्रस्य हेतुत्वेन विवक्षातो न दोषस्तर्हि तत् प्रकृतेऽपि तुल्यम् 'अन्यतर' शब्दस्याप्यनङ्गीकृतविशेषस्य द्वयाभिधाने सामोपपत्तेः।
एतेन यदुक्तं न्यायविदा - 'अनर्थः खल्वपि कल्पनासमारोपितो न लिङ्गम् तथा पक्ष एवायं पक्षसपक्षयोरन्यतरः' ( ) इत्यादि; तदपि निरस्तम् त्रैरूप्यसद्भावेऽपि प्रकरणसमत्वेनाऽस्याऽगमकत्वात् । शब्द भी किसी विशेष का यानी पक्ष अथवा सपक्ष का वाचक बन सकता है। तब प्रकरणसम के बदले असाधारणअनैकान्तिक या असिद्ध हेत्वाभास का पुनरावर्त्तन होगा और प्रकरणसम का विलोप होना अनिवार्य है' - तो यह ठीक नहीं है। शब्दप्रवृत्ति विवक्षाधीन होने पर भी लोकव्यवहार का उल्लंघन नहीं करती। 'शब्द का किस अर्थ के साथ प्रस्तुत में सम्बन्ध अभिप्रेत है' यह व्युत्पत्ति लोकव्यवहार पर निर्भर रहती है। लोकव्यवहार में, विवक्षा होने पर भी 'पक्ष' शब्द की सपक्ष के लिये और 'सपक्ष' शब्द की पक्ष के लिये प्रवृत्ति नहीं होती। जैसे पक्ष-सपक्ष इन दो शब्दों की प्रवृत्ति संकेत यानी विवक्षा होने पर भी क्रमशः सपक्ष और पक्ष के लिये नहीं हो सकती, ठीक इसी तरह उभय सामान्य अर्थ में संकेतित 'अन्यतर' शब्द की प्रवृत्ति भी पक्षादि विशेष के लिये नहीं हो सकती। हाँ, विवक्षा का इतना योगदान यहाँ जरूर है कि 'अन्यतर' शब्द उभयसामान्यवान् अर्थ के जरिये उभय का वाचक होने पर भी विवक्षा के प्रभाव से किसी एक सामान्यवान का ही वाचक हो यह नियन्त्रण हो जाता है। ___यदि ऐसा कहा जाय कि - "किसी एक सामान्यवान् के वाचक बन जाने से आखिर तो 'अन्यतर' शब्द की वृत्ति किसी एक विशेष अर्थ में ही फलित हुई, इस लिये प्रकरणसम का विलोप का प्रसंग भी तदवस्थ ही रह जायेगा' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि इस ढंग से पूर्वोक्त दूषण के तदवस्थ रह जाने का आक्षेप करने पर तो कोई भी हेतु सद् हेतु के रूप में प्रसिद्ध नहीं हो पायेगा, क्योंकि कृतकत्वादि (अनित्यता साधक) हेतु में जब पक्षधर्मता का अन्वेषण करेंगे तब शब्दात्मकपक्षगत कृतकत्व हेतु का भी पक्षवृत्ति कृतकत्वविशेष में ही पर्यवसान फलित होगा, फलतः कृतकत्वविशेष का अन्यत्र अनुगम न होने से वह भी असाधारणअनैकान्तिक ही बन जायेगा, यदि सपक्षविशेषित यानी सपक्षवृत्ति कृतकत्वविशेष को हेतु बनायेंगे तो वह पक्षधर्म न होने से हेतु असिद्ध हेत्वाभास ठहरेगा। यदि कहा जाय कि – ‘पक्षवृत्ति या सपक्षवृत्ति की विवक्षा को छोड कर सिर्फ कृतकत्व सामान्य को ही हेतु करने से वह हेत्वाभास नहीं बनेगा' - तो प्रस्तुत में भी समान वार्ता हो सकती है, विशेष का उल्लेख किये विना ही 'अन्यतर' शब्द, सामान्यधर्मविधया दोनों पक्षपक्ष का प्रतिपादन करने में समर्थ बन सकेगा । फलतः असाधारण या असिद्ध को अवकाश न रहने पर प्रकरणसम हेत्वाभास ही यहाँ सावकाश रह पायेगा।
न्यायवेत्ता (संभवतः धर्मकीर्ति) ने यहाँ प्रकरणसम को असाधारण हेत्वाभास सिद्ध करने के लिये जो कहा है कि - (शब्द का) अर्थ न हो, उस को भी अगर कल्पना से आरोपित किया जाय फिर भी वह हेतु नहीं हो सकता। इसी तरह ‘पक्ष-सपक्षान्यतर' शब्द का अर्थ यहाँ पक्ष ही फलित होता है।' इत्यादि
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