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________________ १८९ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ एते च लक्षणाऽसम्भवादेवासन्तः। तथाहि - यदेषां नित्यद्रव्यवृत्तित्वादिकं लक्षणमभिहितम् तदसम्भवदोषदुष्टत्वादलक्षणमेव । यतो न किञ्चिन्नित्यं द्रव्यमस्ति, तस्य पूर्वमेव निरस्तत्वात् । तदभावे च तद्वृत्तित्वं लक्षणमेषां दूरोत्सारितमेव । यच्च योगिप्रभवविशेषप्रत्ययबलादेषां सत्त्वं साध्यते तदसंगतमेव, हेतोरनैकान्तिकत्वात् । तथा हि – परमाण्वादीनां स्वस्वभावव्यवस्थितेः स्वरूपं परस्पराऽसंकीर्णरूपं वा भवेत्, संकीर्णस्वभावं वेति कल्पनाद्वयम् । आद्यकल्पनायां स्वत एवाऽसंकीर्णपरमाण्वादिरूपोपलम्भाद् योगिनां तेषु वैलक्षण्यप्रत्ययोत्पत्तिर्भविष्यतीति व्यर्थमपरविशेषपदार्थकल्पनम् । द्वितीयायामपि विशेषाख्यपदार्थान्तरसन्निधानेऽपि परस्परव्यतिमिश्रेषु परमाण्वादिषु तद्बलाद् व्यावृत्तप्रत्ययो योगिनां प्रवर्त्तमानः कथमभ्रान्तो भवेत्, स्वरूपतोऽव्यावृत्तस्वरूपेषु अण्वादिषु व्यावृत्ताकारतया प्रवर्त्तमानस्य तस्य ‘अतस्मिंस्तद्ग्रहण'रूपतया भ्रान्तत्वाऽनतिक्रमात् ? एवमेतत्प्रत्ययोगिनस्तेऽयोगिन एव स्युः। किञ्च, यदि विशेषाख्यपदार्थान्तरव्यतिरेकेण विलक्षणप्रत्ययोत्पत्तिर्न भवेत् कथं विशेषेषु तस्योत्पत्तिर्भवेत् तेष्वपरविशेषाभावात् ?! भावे वाऽनवस्थाप्रसक्तेः 'नित्यद्रव्यवृत्तयः' इति चाऽभ्युपगमक्षतिः स्यात् विशेषेष्वपि विशेषाणां वृत्तेः। अथ स्वत एव तेषु परस्परवैलक्षण्यमित्यपरविशेषमन्तरेणापि वैल * विशेषपदार्थ पारमार्थिक नहीं * प्रतिपक्षियों का कहना है कि विशेषों सत् नहीं है, उन के प्रदर्शित लक्षण सम्भवविहीन है। देखिये - नित्यद्रव्यवृत्तित्व आदि यह प्रदर्शित लक्षण असम्भव दोष से दुष्ट होने से कुलक्षण है। कारण, नित्य द्रव्य जैसी कोई चीज ही नहीं है, पहले नित्यद्रव्य का प्रतिषेध किया जा चुका है। नित्य द्रव्य सिद्ध न होने पर, उन में वृत्तित्व - यह विशेषों का लक्षण कैसे घट सकता है ?! योगियों के विशेषप्रत्यक्ष के बल पर विशेषों की सत्ता का प्रदर्शन असंगत ही है, क्योंकि वहाँ हेतु साध्यद्रोही है। कैसे यह देखिये - यहाँ दो विकल्प जान लीजिये द्रव्य अपने अपने स्वभाव में अवस्थित होते हैं, यह स्वभाव परस्पर असंकीर्णतास्वरूप है या परस्पर संकीर्णतारूप ? प्रथम विकल्प में योगिजनों को विना किसी निमित्त के ही असंकीर्ण परमाणु आदि का स्वरूप उपलब्ध हो जाने से परमाणु आदि नित्य द्रव्यों में परस्पर विलक्षणता की प्रतीति उदित हो जायेगी, फिर अतिरिक्त विशेष पदार्थ की कल्पना का कष्ट क्यों ? द्वितीय विकल्प में जब वे परमाणु आदि नित्य द्रव्य स्वभाव से ही परस्पर संकीर्ण (अव्यावृत्त) हैं तब उन में, विशेषसंज्ञक अन्य पदार्थ के संनिधान होने पर भी उस के बल से जो योगियों को व्यावृत्ताकार बोध होगा उस को अभ्रान्त कैसे माना जा सकेगा जब कि नित्य पदार्थ तो संकीर्ण स्वरूपवाले हैं ? संकीर्ण यानी अव्यावृत्त, स्वरूप से अव्यावृत्त अणु आदि पदार्थों में व्यावृत्ताकार ग्रहण कर के प्रवृत्त होने वाला योगिप्रत्यक्ष अतथाकार वस्तु में तथाकारग्राही होने से भ्रमणा के आवर्त्त से उबर नहीं पायेगा। तथा, ऐसी भ्रमप्रतीति करने वाले योगीयों को 'योगी' भी कौन मानेगा ?! * विशेषों में व्यावृत्तबुद्धि का निमित्त कौन ? * दूसरी बात – यदि विशेषसंज्ञक पदार्थ के विना विलक्षण प्रतीति नहीं हो सकती, तो जिन में अन्य विशेष ही नहीं है ऐसे विशेषों के विषय में विलक्षण प्रतीति कैसे होगी ? यदि उन में भी स्वतन्त्र विशेष माने जायेंगे तो उन नये विशेषों में भी विलक्षण प्रतीति के लिये अन्य... अन्य... अन्य.. विशेषों की कल्पना का अन्त नहीं आयेगा। एवं विशेषों में अपर विशेषों की वृत्ति मानने पर 'नित्य-द्रव्यवृत्ति' सिद्धान्त का भंग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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