SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चम: खण्ड: का० ४९ मिथ्याबुद्धेः परस्येष्टसिद्धिः, विच्छिन्नाऽविच्छिन्नरूपतयोपजातस्य वस्तुनः प्रधानभूतस्य तद्बुद्धिनिबन्धनस्य सिद्धावपि तदर्थान्तरभूतसंयोग-विभागलक्षणगुणाऽप्रसिद्धेः । यथा च चैत्र - कुण्डलयोर्विशिष्टावस्थाप्राप्तौ संयोगः प्रादुर्भवति न सर्वदा तथा 'चैत्रः कुण्डली' इति मतिरपि तदवस्थाविशेषनिबन्धना कदाचिदेव भविष्यति न सर्वदा इति किमर्थान्तरभूतसंयोगकल्पनया ? यदपि 'यदेव क्वचिदुपलब्धम्' इत्याद्यभिधानम् (१३२-१०) तदपि असंगतम्, विशिष्टावस्थायाः प्रदर्शितमतिनिबन्धनाया उपलभ्यस्वभावाया अन्यत्रानुपलम्भतः प्रतिषेधोपपत्तेः । परपरिकल्पितस्य च संयोगस्य संयोगिपदार्थविवेकेन क्वचिदपि प्रत्ययेऽप्रतिभासनात् कुतः प्रतिषेधो विधिर्वा सम्भवी ? यदि च देवदत्त-कुण्डलयोर्देशान्तरादौ सत्त्वान्न निषेधोऽसत्त्वेऽपि तदाऽऽनर्थक्यम् तदा नञर्थाभाव एव स्यात्, संयोगप्रतिषेधेऽपि चैतद् दूषणं समानम् तस्यापि विद्यमानत्वे प्रतिषेधानुपपत्तेः अविद्यमानत्वे तदानर्थक्यात् । यदपि ‘बीजादयोऽविशिष्टत्वात् सर्वदैव कार्यं विदध्युः' इत्यायुक्तम् तत्र बीजादीनामविशिष्टत्वमसिद्धम् सर्वभावानां प्रतिक्षणविरु विशिष्टावस्थाप्राप्तौ जनकत्वात् बीजादीनां स्वकार्यजनने सापेक्षत्वमात्रसाधने च सिद्धसाध्यता अव्यवधानाद्यवस्थान्तरसापेक्षाणां बीजादीनामङ्कुरादिस्वकार्यनिर्वर्त्तनस्याऽस्माभिरभ्युपगमात् । नहीं होता । कदाचित् मंजूर कर लिया जाय कि मिथ्याबुद्धि मुख्य के होने पर ही हो सकती है- तथापि प्रतिपक्षी का कुछ इष्ट सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि मिथ्याबुद्धि का पूर्व आधारभूत विच्छिन्न / अविच्छिन्न रूप से उपजात वस्तुस्वरूप प्रधान भाव तो दोनों के मत में सिद्ध है, जब कि उस से अर्थान्तरभूत संयोग - विभागात्मक गुण तो सिद्ध ही नहीं है । जैसे ही चैत्र और कुण्डल विशिष्ट ( निरन्तर ) अवस्था को प्राप्त होने पर ही आप के मतानुसार संयोग का प्रादुर्भाव होता है न कि सर्वदा जैसी तैसी अवस्था में भी, वैसे ही 'चैत्र सकुण्डल है' ऐसी बुद्धि भी निरन्तर अवस्थाविशेषमूलक होने से कभी उस अवस्था के होने पर ही होगी न कि सर्वदा, इस बुद्धि का नियमन अन्यथा घटित हो जाने पर अर्थान्तरभूतसंयोग की कल्पना का कष्ट क्यों किया जाय ? * सकुण्डल चैत्र-बुद्धि का निमित्त ? यह जो कहा गया है कि जो कहीं उपलब्ध होता है उसी का अन्यत्र विधान / निषेध किया जाता है... इत्यादि, वह निपट गलत है, क्योंकि 'चैत्र सकुण्डल है' इस प्रकार की बुद्धि का मूल निमित्त जो निरन्तरावस्थान रूप विशिष्टावस्था है वह उपलब्धिलक्षण को प्राप्त है, अतः जहाँ वह उपलब्ध नहीं रहती वहाँ उस का 'संयुक्त नहीं है' इस प्रकार निषेध किया जाय यह तो उचित ही है, लेकिन न्याय मत में कल्पित स्वतन्त्र संयोग का तो संयुक्त भाव से अतिरिक्त रूप में कहीं भान ही नहीं होता, तो फिर उस के बारे में कैसे विधि / निषेध सम्भव होंगे ? और जो आपने कहा था कि 'अकुण्डलो देवदत्तः' इत्यादि प्रयोगों में न देवदत्त का विधि / निषेध शक्य है न कुण्डल का, क्योंकि दोनों ही अन्य स्थान में यदि सत् हैं तो उनका निषेध निरर्थक है... इत्यादि - उसको सही माना जाय तब तो यह विपदा होगी कि निषेधार्थक नञ्- पद का अर्थ ही विलुप्त हो जायेगा । कारण, संयोग का प्रतिषेध मानने के पक्ष में भी वे कल्पित दूषण तदवस्थ हैं - यदि संयोग कहीं भी विद्यमान है तो उस का निषेध कर नहीं सकते और यदि कहीं भी विद्यमान नहीं है तो उस का निषेध व्यर्थ है । १३५ यह जो कहा है कि, संयोग की महत्ता नहीं मानेंगे तो भू-जल - बीजादि अविशिष्टरूप से सर्वदा विद्यमान होने से सर्व काल में अंकुरादि कार्यनिष्पत्ति होती रहेगी वह अयुक्त इस लिये है कि बीजादि उस काल में अविशिष्ट होते हैं यह बात असिद्ध है, क्योंकि बौद्धमत में भावमात्र प्रतिक्षण विनाशी होता है अतः असंयुक्तदशा में अजनक होने पर भी जिस क्षण में वे विशिष्ट संयुक्तस्वरूप उत्पन्न होते हैं तब वे कार्य के जनक होते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy