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________________ १३३ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ तस्यैवान्यत्र विधिः प्रतिषेधो वा दृष्टः । यदि च संयोगो न कदाचिदुपलब्धः कथं विभागेनास्य 'चैत्रोऽकुण्डलः कुण्डली वा' इत्येवं प्रतिषेधो विधिश्च भवेत् ? यतः ‘अकुण्डलश्चैत्रः' इति न कुण्डलं प्रतिषिध्यते तस्यान्यदेशादौ विद्यमानस्य प्रतिषेधुमशक्यत्वात्, अत एव न चैत्रः, ततश्चैत्रस्य कुण्डलसंयोगः प्रतिषिध्यते । एवं 'कुण्डली चैत्रः' इत्यत्रापि चैत्र-कुण्डलयोर्नान्यतरस्य विधिः, तयोः सिद्धत्वात् । ततः पारिशेष्यादप्रतीतस्य तत्संयोगस्यैव विधिरिति संयोगादिर्वास्तवः समस्त्येव यद्वशाद् विभक्तविधिप्रतिषेधप्रवृत्तिः 'चैत्रः कुण्डली' इत्यादिप्रयोगेषु । किञ्च, यदि संयोगः अर्थान्तरं न भवेत् तदा बीजादयः अविशिष्टत्वात् सर्वदैव स्वकार्यमङ्कुरादिकं विदध्युः, न चैवम्, सर्वदा तेषां कार्यानारम्भात्, अतो बीजादयः स्वकार्यनिर्वर्त्तने कारणान्तरसव्यपेक्षाः मृत्पिण्ड-दण्ड-चक्र-सूत्रादय इव घटादिकरणे । योऽसावपेक्ष्यः स संयोगः । ( ) इत्युयोतकरः । अत्र प्रतिविधीयते - यत् तावदुक्तम् ‘पदार्थविशेषणभावेन संयोगोऽध्यक्षतः प्रतीयते' इति, तदयुक्तम्; यतो न संयुक्तपदार्थार्थान्तरभूतः संयोगः कदाचित् प्रतिपत्तुर्दर्शनपथमवतरति । न तद्दर्शनाद् विशिष्टे द्रव्ये असावाहरति, किं तर्हि ? प्राग्भाविसान्तरावस्थातो विशिष्टे निरन्तरावस्थे ये समुनियम है कि किसी को कहीं भी ‘सद्' रूप से कुछ उपलब्ध यानी ज्ञात हुआ हो तभी वह अन्य स्थान में उस चीज को देखने- न देखने पर उस का विधान या प्रतिषेध करता है; संयोग जैसी चीज अगर कहीं उपलब्ध ही नहीं है तब 'चैत्र कुण्डलविहीन है' अथवा 'चैत्र सकुण्डल है' ऐसा पृथक् पृथक् निषेध या विधान किस के आधार पर होगा ? देखिये, 'चैत्र कुण्डलविहीन है' इस प्रकार किस का निषेध होता है ? कुण्डल का नहीं, क्योंकि कुण्डल तो अन्य किसी स्थानादि में अवश्य विद्यमान है, अतः उस का निषेध नहीं हो सकता । चैत्र का भी निषेध अशक्य है क्योंकि वह भी यहाँ विद्यमान है । अतः मानना होगा कि चैत्र के साथ कुण्डल के संयोग का निषेध होता है । ऐसे ही, 'चैत्र सकुण्डल है' यहाँ चैत्र या कुण्डल में से एक का भी विधान अशक्य है क्योंकि वे तो स्वतः सिद्ध है, अतः परिशेषन्यायानुसार उन दोनों के पूर्व-अज्ञात संयोग का ही विधान किया जा सकता है । इस से फलित होता है कि संयोगादि पदार्थ वास्तविक है, उसी के प्रभाव से 'चैत्र सकुण्डल....' इत्यादि प्रयोगों में पृथक् पृथक् विधि-निषेध का प्रतिपादन किया जाता है । ___और एक बात, संयोग यदि अर्थान्तर न होता तो भूमि-बीज के संयोग के विना, भूमि सर्वदा अवस्थित है और बीज भी कोष्ठादि में सर्वकाल संचित है, जल भी नदीयों में सदा है । संयोगरूप विशेष की अपेक्षा न होने पर सदा सर्वदा अंकुरादि कार्यों की निष्पत्ति बीजादि से होती रहती, किन्तु नहीं होती है, सर्वकाल बीजादि से अंकुरोत्पत्ति का चक्र गतिशील नहीं होता । अतः अनुमान होता है कि अंकुरादि अपने कार्य के उत्पादन के लिये भू-जल-बीजादि को उन से अतिरिक्त किसी चीज की अपेक्षा जरूर है; जैसे मिट्टीपिण्ड, दण्ड, चक्र, चीवर आदि को घटादि उत्पादन में परस्पर उन से अतिरिक्त किसी की अपेक्षा रहती है; जो वहाँ अपेक्षणीय है उसी का नाम संयोग (परस्पर का मिलनरूप संयोग) है । - संयोग की सिद्धि में यह उद्योतकर विद्वान का वक्तव्य है । * अतिरिक्त संयोगवाद प्रतिषेध * अतिरिक्त संयोगवाद का अब प्रतिकार देखिये - यह जो कहा है – संयुक्त पदार्थों के विशेषणरूप में प्रत्यक्ष ही संयोग प्रतीत होता है - वह अयुक्त है । कारण, संयुक्त पदार्थों से अतिरिक्तस्वरूप संयोग कभी भी दृष्टा को दृष्टिपथगोचर नहीं होता । 'संयोग को देख कर सेवक विशिष्ट संयुक्त पदार्थों को ले आता है' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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