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________________ १३२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् एतद् विभागसाधनेऽपि विपर्ययेण सर्वं समानम् । किञ्च, यद्यर्थान्तरभूतौ संयोगविभागौ वस्तुनो न स्याताम् तदा वस्तुमात्रनिबन्धनौ 'सान्तरमिदम् – निरन्तरम्' इति च प्रत्ययौ नोत्पद्येयाताम् न हि विशेषप्रत्ययौ वस्तुविशेषमन्तरेण सम्भविनौ सर्वदा भावप्रसङ्गात् । अपि च, दूरदेशवर्तिनः प्रमातुः सान्तरावस्थितेऽपि धव-खदिरादौ निरन्तरावसायिनी बुद्धिर्योत्पद्यते या च शाखिशिखरावसक्ते बलाकादौ सान्तरत्वाध्यवसायिनी समुपजायते द्विविधाऽपीयम् ‘अतस्मिंस्तत्' इति प्रवृतेर्मिथ्याबुद्धिः, न चासौ मुख्यपदार्थानुभवमन्तरेण क्वचिदुपजायमाना संलक्ष्यते । न हि अननुभूतरजतस्य शुक्तिकायाम् 'रजतम्' इति विभ्रमः, इति कश्चिन् मुख्यो भावो विभ्रमधियो निमित्तमभ्युपगन्तव्यः, तदभ्युपगमे च संयोगविभागसिद्धिः तद्व्यतिरेकेणान्यस्य एतद्बुद्धेर्निबन्धनस्यासम्भवात् । __तथा, 'कुण्डली देवदत्तः' इति मतिः किंनिबन्धनोपजायत इति वक्तव्यम् । न पुरुष-कुण्डलमात्रनिबन्धना, सर्वदा तयोस्तस्या उत्पत्तिप्रसंगात् । अपि च, यदेव क्वचित् केनचिदुपलब्धं सत्त्वेन, शशसींग । – यह ठीक नहीं है, क्योंकि मिलित अनेक द्रव्यों के विशेषणरूप में संयोग की प्रत्यक्ष प्रतीति सभी को होती है । देखिये - एक ने दूसरे को कहा, 'संयुक्त दो द्रव्यो को ले आव' तब सुननेवाला जिन दो द्रव्यों का संयोग देखता है उन दो द्रव्यों को ले आता है, न कि जैसे तैसे द्रव्यों को । यदि संयोग अप्रत्यक्ष होता तो श्रोता किसी भी वस्तु को उठा लाता । * विभाग के साधक प्रमाण * विभाग भी उक्त रीति से प्रत्यक्ष सिद्ध है, विभक्त दो द्रव्यों के आनयन के लिये आदेश को सुन कर सेवक वैसे दो द्रव्यों को ही लाता है जिन के विभाग को स्पष्ट देखता है । यदि द्रव्य से अतिरिक्त स्वतन्त्र संयोग-विभाग को न मान कर सिर्फ द्रव्य वस्तु का ही स्वीकार करेंगे तो समझ लीजिये कि मात्र द्रव्यवस्तु से (उस को देखने के बाद) इन दो के बीच में अन्तर है और ये दो निरन्तर हैं ऐसा बोध कभी उत्पन्न नहीं होगा । सान्तर-निरन्तरबोध विशेषप्रतीतिरूप हैं जो किसी संयोग-विभागस्वरूप विशेष वस्तु के विना हो नहीं सकता, अन्यथा कैसी भी दशा में सर्वत्र सर्वकाल में सान्तर और निरन्तर की प्रतीति होती रहेगी । यह भी सोचने की जरूर है - धव और खदीर के वृक्ष के बीच कुछ अन्तर रहने पर भी दूरदेशवर्ती दृष्टा को एक-दूसरे से सटे हुए दिखाई देते हैं, दूसरी ओर वृक्ष की चोटी के ऊपर छोटी सी टहनी के ऊपर बगुला बैठा हो तो दूरदेशवर्ती दृष्टा को वह वृक्ष से अलग दिखाई देता है । ये दोनो बुद्धियाँ मिथ्याप्रतीतिरूप हैं क्योंकि ये बुद्धि ‘अतथाभूत विषय को तथाभूत' देखती है । यह सुविदित तथ्य है कि मुख्यपदार्थ के अनुभव के विना मिथ्याप्रतीति का उदय कहीं दिखता नहीं है, शुद्ध रजत के अज्ञाता पुरुष को शुक्ति में रजत का विभ्रम कभी नहीं होता । अतः पूर्वोक्त सान्तर-निरन्तर भ्रमबुद्धियों की पृष्ठभूमि में किसी मुख्य भाव को निमित्तरूप में मंजूरी देनी होगी । मुख्य भाव को मान लेने पर संयोग-विभाग की अनायास सिद्धि हो जायेगी, क्योंकि उन के विना और कोई चीज उक्त सान्तर-निरन्तरबुद्धि का निमित्त बने यह असम्भव है । ** 'कुण्डलवान्' ऐसी प्रतीति से संयोगसिद्धिप्रयास ** और भी सोचिये कि 'देवदत्त सकुण्डल है' इस बुद्धि में देवदत्त और कुण्डल से अतिरिक्त कोई निमित्त है या नहीं, है तो वह कौनसा है ? सिर्फ पुरुष और कुण्डल मात्र से तो वह बुद्धि हो नहीं सकती, यदि हो सकती है तब तो देवदत्त के पास भूमिगत कुण्डल को देख कर के भी वैसी बुद्धि उदित होती । यह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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