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प्रस्तावना
किया गया है। उन की उदारता के कारण इस खंड में जितनी गाथाओं के ऊपर महोपाध्यायजी का छोटाबडा विवेचन उपलब्ध है वह यहाँ टिप्पणीयों में मुद्रित किया गया है। एतदर्थ यह प्रकाशन उन का बडा ऋणी है ।
तृतीय - चतुर्थ खंड का हिन्दी विवेचन, सम्पादन कार्य अभी प्रतीक्षाखंड में ही है, (अब सुप्रकाशित है) उस के पहले पंचमखंड के प्रकाशन का कारण यह है कि जब कोइम्बतूर (तमिलनाडु) में पूज्य गुरुदेव भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. के साथ चातुर्मास था तब दूसरे खंड का हिन्दी विवेचन कार्य पूरा हो गया था। तब पूज्यश्री का आदेश हुआ तीसरे, चौथे को बाद में हाथ पर लेना, पहले पंचमखंड का विवेचन शुरु कर दो, न्याय पढनेवालों के लिये उस की बडी आवश्यकता है। न्यायदर्शन तो सब पढेंगे, लेकिन उस के बाद तुरंत उस के एकान्तवाद का अनेकान्तवाद के आलोक में निराकरण नहीं पढेंगे तो एकान्तवाद की वासना से मतिमोह हो जाने का पूरा सम्भव है इस लिये इस पंचमखंड का शीघ्र प्रकाशन जरूरी है। पूज्यश्री की पवित्र इच्छा को शिरोधार्य कर के हमने पंचम खंड के हिन्दी विवेचन का कार्य पहले किया, इसी लिये दूसरे खंड का गतवर्ष प्रकाशन होने के बाद पंचमखंड का प्रकाशन किया गया है।
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तत्त्वेषु सर्वेषु गुरुः प्रधानम् - यह पू. मुनिसुंदरसूरि महाराज की सूक्ति इस कार्य में बहुधा सार्थक हो रही है । सिद्धान्त - महोदधि कर्मसाहित्यनिष्णात - सुविशालगच्छनिर्माता- शासनशशिराहुपीडानिवारक श्रीसंघरक्षाकारक प.पू. स्व. आचार्यदेवश्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी म.सा. एवं आप के पट्टालंकार - न्यायविशारद - वर्धमानतपोनिधिउत्सूत्रवचनपीडानिवारक - श्रीसंघोत्कर्षविधाता प. पू. स्व. आचार्यदेवश्रीमद् विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. एवं आप के पट्टविभूषक - सिद्धान्तदिवाकर- गीतार्थगणचूडामणि - गच्छाधिपति परमोपकारी गुरूदेव प.पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय जयघोषसूरीश्वरजी म.सा. आदि गुरुजनों की निरंतर कृपावृष्टि के प्रभाव से यह कार्य निष्पन्न हो सका है । तथा, जिन महानुभावों के सद्भाव एवं प्रत्यक्ष / परोक्ष सहायता से यह कार्य हो सका है उन सब के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करता हूँ।
शीघ्र एकान्तवादभरे संसार की वासना
जयसुंदरविजय - हस्तगिरितीर्थ महा वदि ११. (अब : आ० जयसुंदरसूरि म.सा. )
अधिकारी - मुमुक्षु अध्येता गण इस ग्रन्थरत्न का अध्ययन कर से मुक्त हो जाय, यही मंगल कामना ।
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जह जह बहुस्सुओ संमओ अ सिस्सगणसंपरिवुडो य । अविणिच्छिओ य समए तह तह सिद्धंतपडिणीओ ।। ६६ ।।
चरण-करणप्पहाणा ससमय परसमयमुक्कवावारा । चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण याणंति । । ६७ ।।
जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा न निव्वड ( ? ह ) इ। तस्स भुवणेक्कगुरुणो नमो अगंतवायस्स || ६८ ॥ भद्दं मिच्छादंसणसमूहमइयस्स अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स ।। ६९ ।।
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