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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ सक्तिः अविकलकारणत्वात् । तथा च प्रयोगः – येऽविकलकारणास्ते सकृदेवोत्पद्यन्ते यथा समानोत्पादा बहवोऽङ्कराः, अविकलकारणाश्च परमाणुकार्यत्वेनाभिमता भावा इति स्वभावहेतुः । अविकलकारणस्याप्यनुत्पादे सर्वदाऽनुत्पत्तिप्रसक्तिः विशेषाभावात् इति विपर्यये बाधकं प्रमाणम् । स्यादेतद् – समवाय्यसमवायिनिमित्तभेदात् त्रिविधं कारणम् । यत्र हि कार्यं समवैति तत् समवायिकारणम् यथा व्यणुकस्याणुद्वयम् । यच्च कार्यैकार्थसमवेतं कार्यकारणैकार्थसमवेतं वा कार्यमुत्पादयति तद् असमवायिकारणम् यथा पटावयविद्रव्यारम्भे तन्तुसंयोगः, पटसमवेतरूपाद्यारम्भे पटोत्पादकतन्तुरूपादि च । शेषं तु उत्पादकं निमित्तकारणम् यथा - अदृष्टाऽऽकाशादि । तत्र संयोगादेरपेक्षणीयस्याऽसंनिधेरविकलकारणत्वमसिद्धम् ! - असदेतत्, संयोगादिनाऽनाधेयातिशयत्वात् नित्यतयाऽणूनां तदपेक्षत्वाऽयोगात् । न च तनु-करणादीनां कार्याणां सकृत् प्रादुर्भाव उपलभ्यते, तस्माद् विपर्ययः । जो कि अविकलरूप है, परमाणुओं में प्रत्येक क्षण में रहता है अत: कारण अविकल रहने पर एक साथ सर्वकार्यद्रव्य की उत्पत्ति हो जाना न्याययुक्त है । देखिये यह प्रसंगापादन प्रयोग -- जिन के कारण अविकल उपस्थित रहते हैं वे एक बार ही उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे घासवाली जर्मी में एक बार ही अनेक अंकूरे पैदा हो जाते हैं । परमाणु के कार्यरूप में अभिमत जो व्यणुकादि पदार्थ हैं वे भी अविकल कारणवाले हैं इसलिये एक बार में ही उत्पन्न हो जाने चाहिये । यहाँ अविकलकारणता यह स्वभावहेतु है । यदि कारणसामग्री अविकल रहने पर भी एक बार उन सब कार्यों की उत्पत्ति न होगी तो फिर समझ लेना कि कभी भी उनकी उत्पत्ति नहीं हो पायेगी, चूँकि अविकलकारणतारूप स्वभाव के अलावा और कोई नया विशेष बाद में आयेगा नहीं जो कार्योत्पत्ति करा सके । -- यह विपक्षबाधक प्रमाण यानी तर्क है। 'अविकलकारणता होने पर भी अगर वे कार्य एक बार उत्पन्न नहीं होते तो क्या बाध ?' इस प्रकार के विपक्ष की शंका में उक्त्त तर्क बाधक है । * कारणों के तीन भेद * नित्यवादी :- कारण के तीन प्रकार हैं, १समवायि, २असमवायि और ३निमित्त । १ जिस कारण में कार्य समव्याप्त हो जाता है उसको 'समवायि' कहा जाता है, उदा० ट्यणुक द्रव्य के दो परमाणु । २ जो कार्य अथवा उसके कारणद्रव्य के साथ एक अर्थ यानी अधिकरण में समवेत हो और कार्योत्पत्ति में सक्रिय हो उसे से असमवायि कारण कहा जाता है. उदा० वस्त्ररूप अवयविद्रव्य की उत्पत्ति के पर्वक्षण में कार्यरूप वस्त्र के अधिकरण में समवेत हो कर रहने वाला तन्तुसंयोग, यह कार्यैकार्थसमवेत असमवायिकारण है । तथा, वस्त्र के रूप की उत्पत्ति में तन्तुगत रूप असमवायिकारण बनता है जो कि कार्य (=रूप) के कारणभूत वस्त्र के साथ एक अधिकरण भूत तन्तुओं में रहता है । ३ समवायि-असमवायि से भिन्न, जितने भी उत्पत्ति में सहयोग देने वाले कारण हैं जैसे-अदृष्ट (पुण्य-पाप) और आकाश-कालादि, उन को निमित्त कारण कहा जाता है । प्रस्तुत में बात यह है कि व्यणुक आदि सर्व कार्यों की एक बार उत्पत्ति हो जाने के लिये परमाणुओं का संयोग भी असमवायिकारणरूप में अपेक्षित है, पृथक् पृथक् रहे हुए परमाणुओं में जब तक वह संनिहित नहीं है तब तक अविकलकारणतारूप हेतु ही असिद्ध है इस लिये वह प्रसंगापादन व्यर्थ है । अनित्यवादी :- यह समाधान गलत है । कारण, संयोग कोई ऐसी चीज नहीं है जो पृथक् परमाणु में कोई नये अतिशय का आधान करे । परमाणु तो नित्य है, नित्य को संयोगादि किसी की भी अपेक्षा नहीं होती । अतः वह प्रसंगापादन तदवस्थ रहता है । प्रसंग के ऊपर से अब विपर्यय दिखाते हैं - शरीर-इन्द्रियादि कार्य का एक बार ही सहोत्पाद होता हो ऐसा दिखता नहीं है इस लिये यह विपर्यय फलित होता है कि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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