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प्रस्तावना
श्री सन्मति तर्कप्रकरण जैनशासन का अमूल्य निधान है। अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद श्री जैनशासन का सर्वतो अधिक महत्त्वशाली प्रमुख सिद्धान्त है। जैनशास्त्रों में कहा है – एकान्तवाद मिथ्यात्व है, अनेकान्तवाद सम्यक्त्व है। एकान्तवाद संक्लेशकारक है, अनेकान्तवाद समाधानकारक, चित्तप्रसन्नताकारक है, क्लेशनिवारक है। हठ, जिद्द, कदाग्रह, मतममत्व, मतसंघर्ष - यह सब मिथ्यात्व का प्रदर्शन है। सापेक्षभाव से सत्यतथ्य का स्वीकार एवं समर्थन, अनाग्रहिता, अपने अपने स्थान-अवसर में एक-दूसरे के मत की प्रस्तुतताअप्रस्तुतता का विवेक, यह सब सम्यक्त्व का अलंकार है।
सन्मति तर्कप्रकरण के तृतीयकाण्ड-पंचमखंड में भारपूर्वक अनेकान्तवाद के स्वरूप एवं उस के महत्त्व का निरूपण किया गया है। सामान्य एवं विशेषपदार्थ सर्वथा एक-दूसरे से स्वतन्त्र भिन्न या अभिन्न नहीं है किन्तु अन्योन्य मिलित ही है, सामान्य-विशेष में भेदाभेद है। सन्मतिकार इस काण्ड की प्रथम कारिका से ही इस तरह सामान्य-विशेष के भेदाभेद दिखा कर के अनेकान्तवाद को पुरस्कृत करते हैं। इस काण्ड की अधिकतम कारिकाओं के द्वारा सन्मतिकार इसी तथ्य पर भार दे रहें है कि सामान्य-विशेष, द्रव्य-पर्याय, व्यंजनपर्यायअर्थपर्याय, उत्पाद-विनाश, हेतुवाद-अहेतुवाद, सत्कार्य-असत्कार्यवाद, कालादिकारणतावाद इत्यादि सभी वक्तव्यों में तद् तद् विषयों का निरूपण अनेकान्तवाद के आधार पर करने से ही सत्यप्ररूपणा को अवकाश मिलता है, एकान्तवाद के आधार पर होने वाली प्ररूपणा मिथ्या फलित होती है।
__ अन्य विशेष तो ठीक, अनेकान्त को भी अनेकान्तमय स्वीकारने के लिये सन्मतिकार इस ग्रन्थ में गाथा २७ में भारपूर्वक सूचना करते हैं। जैनशास्त्रकारों का यह प्रधान सूर रहा है कि जैन सिद्धान्तों का अध्ययन करते हुए पहले तो अनेकान्तवाद को समझ कर पूरे अपने विचारविश्व को अनेकान्त के रंग से रञ्जित कर देना चाहिये । एवं अपने प्रतिपादन को भी अनेकान्तगर्भित ही रखना चाहिये । अन्यथा अनर्थ हो सकता है। ___ जैन शास्त्रों में पृथ्वीकायादि छः जीवनिकायों का प्रतिपादन किया गया है। इस सिद्धान्त का अध्ययन करनेवाला यदि एकान्ततः छः ही जीव निकाय की सद्दहणा कर ले तो वह पारमार्थिक सद्दहणा नहीं है। (देखिये गाथा २८) ऐसे महान् अनेकान्तवाद के प्रकाश में हम सरलता से यह समझ सकते हैं कि किसी भी सिद्धान्त को एकान्तवाद की पकड से ग्रहण कर के फिर उस एकान्तवाद-दूषित (वास्तव में अजैन) सिद्धान्त की रक्षा के नाम पर संघर्ष फैलाना, कलह की आग जलाना, उस आग में हजारों भद्र जीवों के हितों को बलि कर देना – यह सब घोर मिथ्यात्व - अभिनिवेशमिथ्यात्व का ताण्डव हो सकता है।
जैनशासन में वितण्डावाद या विवाद को कहीं भी स्थान नहीं है। धर्मवाद अवश्य अवसर प्राप्त है। कारण, धर्मवाद से मतिमालिन्य का शोधन होता है जब कि विवाद एवं वितण्डावाद से मतिमालिन्य की वृद्धि होती है। धर्मवाद और विवाद की भेदरेखा इतनी सूक्ष्म होती है कि कब धर्मवाद से विवाद में पतन हो जाय यह कहा नहीं जा सकता। इसी लिये अनेकान्तवाद के प्ररूपक को विवाद से बचा कर धर्मवाद में स्थिर करने के
सन्मतिकार ने ४३ वीं गाथा में धर्मवाद के हेतवाद एवं अहेतवाद (आगम) ऐसे दो भेदों को उपदर्शित किया है। ४५ वी गाथा में और स्पष्टता करते हुए कहा है कि जो प्रज्ञापक हेतुवादगम्य आगमिक पदार्थों का हेतु से और जहाँ हेतु की पहुँच नहीं है वैसे आगमिक पदार्थो का आगम से, प्रज्ञापन
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