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________________ खण्ड-४, गाथा-१ न हि यथोक्त-विशेषणोपलब्धिः पराभ्युपगमेन संभवति । नापि पराभ्युपगतप्रमाणकार्यतयाऽसौ सिद्धा येन स्वकारणं प्रमाणाभासेभ्यो व्यवच्छिन्द्यात्। तन्नाक्षपाद-कणभुग्मतानुसारिपरिकल्पितमपि प्रमाणसामान्यलक्षणमुपपत्तिक्षमम्। तस्मात् 'प्रमाणं स्वार्थनिर्णीतिस्वभावं ज्ञानम्' इत्येतदेव प्रमाणसामान्यलक्षणमनवद्यम् । ॐ नैयायिकादिसंमत-ज्ञानपरतःसंवेदन-निरसनम् ॥ ननु चाऽत्रापि स्वग्रहणविधुरस्य ज्ञानस्य नैयायिकादिभिरभ्युपगमाद् बौद्धैस्त्वर्थग्रहणविधुरस्येति स्वार्थनिर्णीतिस्वभावताऽसिद्धा। तथाहि- नैयायिकाः प्रतिपादयन्ति- घटादिज्ञानं स्वग्राह्यं न भवति ज्ञानान्तरग्राह्य वा, ज्ञेयत्वाद् घटादिवत्। ___ अत्र प्रयोगे हेतुः स्वरूपासिद्धः आश्रयासिद्धश्च धर्मिणो ज्ञानस्याऽप्रतिपत्तौ तदाश्रितज्ञेयत्वधर्माऽप्रतिपत्तेः। का प्रमाण के साथ स्पष्ट ही विरोध होगा। * वैशेषिक मतानुसार विशिष्ट उपलब्धि का प्रामाण्य दुर्घट * पहले (पृ.५४-पं०१ में) कहा गया था कि वैशेषिक दर्शन भी नैयायिकस्वीकृत प्रमाणसामान्यलक्षण का अंगीकार करते हैं। (नैयायिक स्वीकृत लक्षण के निरसन से वैशिषिकमत का निरसन स्वतःसिद्ध है।) विकल्प में वैशिषिक मत में कहा गया था – अथवा तो तथाविध सामग्री से उत्पन्न होने वाली वह कार्यभूत अव्यभिचारिणी-आदि विशेषणविशिष्ट उपलब्धि ही प्रमाणभूत है क्योंकि लक्षण का कार्य 15 व्यवच्छेद है और यह विशिष्ट उपलब्धि अपनी कारणभूत सामग्री का प्रमाणाभासों से व्यवच्छेद कर देती है इस वृत्तान्त के विरोध में व्याख्याकार कहते हैं कि यह वैकल्पिक वैशेषिक मत भी असंगत है, क्योंकि प्रमिति का प्रमाण से सर्वथा भेदपक्ष में उपरोक्त प्रकार की विशिष्ट उपलब्धि संभव ही नहीं है। उपरांत, उन के मतानुसार 'तथाविधसामग्रीरूप प्रमाण का कार्य उक्त विशिष्टोपलब्धि है' ऐसा 20 भी सिद्ध नहीं है, (वह पहले कहा जा चुका है) तब वह अपने कारण का प्रमाणाभासों से व्यवच्छेद भी कैसे कर पायेगी ? निष्कर्ष :- अक्षपाद एवं कणाद मत के अनुसार उक्त प्रमाणसामान्य का लक्षण युक्तियुक्त नहीं है। निर्दोष युक्तिसंगत लक्षण तो यही है (जो जैन मत में कहा गया है-) 'स्व एवं (पर) अर्थ के निर्णायकस्वरूपवाला ज्ञान ही प्रमाण है'। * ज्ञान के स्व-परसंवेदित्व की चर्चा में नैयायिकादिमत का प्रतिषेध * आपने जैन मत से जो यह कहा - स्व एवं अर्थ का निर्णायक ज्ञान प्रमाण है - इस के विरुद्ध नैयायिकादि मानते हैं - कि ज्ञान स्वयं स्व का निर्णायक (ग्राहक) नहीं होता। दूसरी ओर बौद्ध (योगाचार) मानते हैं कि ज्ञान अर्थ का (बाह्यार्थ का) ग्राहक नहीं होता। इस प्रकार नैयायिक एवं बौद्ध के मतानुसार ज्ञान में स्व एवं अर्थ के निर्णय का स्वभाव असिद्ध है। 30 ____ पहले नैयायिक वादी अपना मत कहता है - 'घटादिविषयक ज्ञान स्वविषयक नहीं होता, अथवा अन्यज्ञान से ज्ञात होता है, क्योंकि वह ज्ञेय है; जैसे घटादि वस्तु।' 25 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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