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________________ खण्ड-४, गाथा-१ साकल्यस्य सकलेभ्योऽभेदे धर्मिमात्रमिति न साकल्यम् धर्ममात्रं वा भवेदिति न धर्मिणः । एकान्तभेदे तु वस्त्वन्तरमेव तत् इति 'न वस्त्वन्तरम्' (पृ.६२-५०७) इत्यभिधेयशून्यं वचः । वस्त्वन्तरपक्षे तु दोषाः प्रतिपादिता एव (पृ.६२-६०१)। यदपि प्रमातृ-प्रमेयजन्यत्वेऽपि सामग्र्या न करणत्वव्याहतिः' इति, (पृ०५३पं०७) तदपि न संगतम्; सामग्र्यास्तज्जन्यत्वेऽनवस्थाद्यनेकदोषापत्तेः प्रतिपादनात्। यदपि 'अव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धिजनिका सामग्री प्रमाणम्' (पृ.४९-५०६) इत्युक्तम् 5 तदप्यसंगतम्, अव्यभिचारादेरुपलब्धिविशेषणस्य भवदभिप्रायेणाऽयोगात्, यथा च तस्याऽयोगस्तथा प्रत्यक्षलक्षणे प्रदर्शयिष्यामः। सामग्री च तज्जनिका यथा न संभवति तथाभिहितमेव साकल्यं विचारयद्भिः (पृ०५४पं.६)। यच्च अबोधस्वभावस्यापि प्रदीपादेः प्रमाणत्वं प्रतिपाद्यते (पृ.४-पं.२), तदप्यसंगतमेव; अबोधस्वभावस्य तस्य प्रमितिक्रियायां साधकतमत्वाऽयोगात् । यच्च लोकस्तेषां 'दीपेन मया दृष्टम्' 'चक्षुषाऽवगतम्' 'धूमेन प्रतिपन्नम्' इति व्यवहरति (पृ.४-पं०२) तदुपचारतः, यथा ‘ममायं पुरुषः चक्षुः' इति, न मुख्यतः, मुख्यतस्तु 10 रहा ही नहीं, सिर्फ सकल कारक ही शेष रह गये, Bअथवा सिर्फ साकल्य ही बचा, कोई कारकरूप अनेक धर्मी नहीं बचे। (२) यदि साकल्य को सकल कारकों से भिन्न मानेंगे तो वह स्वतन्त्र वस्त सिद्ध होगा, लेकिन तब ‘वह स्वतन्त्र वस्तु नहीं है' ऐसा आप का वचन निरर्थक ठहरेगा। उपरांत एकान्तभेदपक्ष में साकल्य को स्वतन्त्र वस्तु मानने पर जो पहले चौथे विकल्पो के द्वारा दोष कह आये हैं वे सब लागू हो जायेंगे। यह जो कहा था (पृ०५३-पं०२८) – ‘सामग्री को प्रमाता एवं प्रमेय 15 से जन्य मानने पर भी सामग्री को करण मानने में कोई बाध नहीं है' - वह भी असंगत है, क्योंकि प्रमाण की उत्पत्ति के लिये प्रमाता-प्रमेयजन्य सामग्री को करण कहेंगे तो उस सामग्री की उत्पत्ति के लिये उन प्रमाता-प्रमेय से जन्य अन्य करण को भी मानना होगा, उस अन्य करण के लिये और एक करण - इस प्रकार अप्रामाणिक कल्पना का अन्त नहीं होगा - यह दोष एवं अन्य कई दोष प्रसक्त होते हैं जो पहले कहा जा चुका है। 20 * अव्यभिचारादिविशेषणयुक्त सामग्री के प्रामाण्य का निरसन * यह जो कहा था - (पृ.४९-५०१८) 'अव्यभिचारादिविशेषणविशिष्ट अर्थोपलब्धि की जनक सामग्री प्रमाण है' - वह भी असंगत है क्योंकि आप के ही मतानुसार अर्थोपलब्धि में अव्यभिचारादिविशेषण संगत नहीं होते - क्यों नहीं होते वह आगे प्रत्यक्षप्रमाण के लक्षण (२७८ तः ३३२ पृष्ठेषु) कथन में दिखायेंगे। तथा, साकल्य के विमर्श में यह भी कह चुके हैं (पृ०५४-पं०१८) कि सामग्री उस उपलब्धि 25 की जनक बने यह संभव नहीं है। तथा, अज्ञानात्मक (जडात्मक) प्रदीपादि का दृष्टान्त दे कर आपने उस में प्रमाणत्व का प्रतिपादन किया है (पृ.४-पं.२१) वह भी अनुचित है; क्योंकि जडस्वरूप दीपक प्रमितिक्रिया में साधकतम हो नहीं सकता। ___पूर्वपक्ष :- 'दीपक से मैं देख पाया, – मैंने चक्षु से देखा, - धूम से मैंने अग्नि का अनुमान किया'... इत्यादि (पृ.४-पं०२२) बहुश: लोकव्यवहार होता है। यहाँ जडस्वरूप दीपकादि को ही करण 30 गिना जाता है। उत्तरपक्ष :- ठीक है, उपचार से हो सकता है जैसे - 'यह बेटा तो मेरी आँख है' ऐसा उपचार से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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