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________________ सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २ D 'अथ पदार्थान्तरं सकलकारणेभ्यः साकल्यम् तदा यत् किञ्चित् पदार्थान्तरं तत् साकल्यम् प्रसज्यत इति यस्य कस्यचित् पदार्थान्तरस्य सद्भावे अर्थोपलब्धिर्भवेदिति सर्वदा सर्वस्य सर्वज्ञताप्रसक्तिः । तन्न कारकसाकल्यं प्रमाणम्। तेन 'प्रमातृ- प्रमेययोरभावे साकल्याभाव: ' ...( पृ५१ - पं० ६ ) इत्यादि प्रतिक्षिप्तम्, तत्सद्भावेऽपि भवदभिप्रायेण साकल्यानुपपत्तेः । ६२ 5 यदपि 'मुख्यगौणभावस्य कारकसाकल्यभावाभावनिमित्तत्वात्' ( पृ०५२-पं० १) इत्यादि, तदपि व्योमकुसुमावतंसकभावाभावकृतदेवदत्तसौभाग्याऽसौभाग्यप्रख्यं दृष्टव्यम् । एतेन 'सन्निपत्यजननं साधकतमत्वम्' यद् व्याख्यातम् ( पृ०५२ - पं० ५) तदपि निरस्तम् तस्यापि साकल्यार्थत्वात् । यदपि 'साकल्यं हि तेषामेव धर्ममात्रम् नैकान्तेन वस्त्वन्तरम्' इति ( पृ०५३ - पं० १) तदपि अनेकान्तवादिमतानुप्रवेशं भवतः सूचयति अन्यथा के लिये अन्य अदृष्ट की कल्पना... अन्त ही नहीं होगा । 10 निष्कर्ष : साकल्य सकल कारणों का कार्य है यह तीसरा विकल्प भी गलत है । * कारणसाकल्य पदार्थान्तरस्वरूप भी नहीं यह चौथा विकल्प साकल्य एक स्वतन्त्र पदार्थ ही है जो कि सकल कारणों से अतिरिक्त भी ठीक नहीं है। अभिप्राय यह है कि कारणों से अतिरिक्त जो कोई वस्तु है वह सब स्वतन्त्र पदार्थ होने से 'साकल्य' बन जायेंगे । फलतः किसी भी स्वतन्त्र पदार्थ से सभी को हर काल में 15 सभी अर्थों की उपलब्धि रूप कार्य प्रसक्त होगा, इस लिये सभी ज्ञाता सर्वज्ञ बन बैठेंगे। यह सत्य नहीं है । विना कारक साकल्य इत्यादि अब निषिद्ध चार में से एक भी विकल्प युक्तिसह न होने से 'कारकसाकल्य प्रमाण हैं' अत एव, पहले ( पृ०५१ -पं० २८ में अर्थतः ) जो कहा था कि ' प्रमाता और प्रमेय के घटित न होने से प्रमाता आदि के विरह में कार्य होने की विपदा नहीं होगी ' हो जाता है क्योंकि प्रमातादि के होने पर भी आप के मतानुसार साकल्य ही घटित ( युक्तिसंगत ) 20 न होने से विपदा का अन्त होना दुष्कर है। * साकल्यवादसमर्थक वचनों का निरसन पहले (पृ०५२-पं०१९) जो साकल्यवादी ने कहा था 'प्रमेय और प्रमाता स्वतः गौण-मुख्य नहीं होते किन्तु कारकसाकल्य के अस्तित्व एवं अभाव पर अवलम्बित होते हैं' यह भी इस निवेदन के तुल्य है कि देवदत्त का सौभाग्य एवं असौभाग्य गगनपुष्पमय मुकुट के अस्तित्व एवं अभाव पर 25 अवलम्बित है। तात्पर्य, जैसे यहाँ गगनपुष्प असत् है वैसे ही पूर्वोक्त चर्चा के अनुसार कारकसाकल्य भी असत् है। यह जो व्याख्या की गई थी ( पृ०५२ - पं० २१) साधकतमत्व यानी 'सन्निपत्य जननं' (अनेक कारकों के संनिहित रहने पर ही उत्पन्न होना) यह व्याख्या भी साकल्य- तुल्य ही होने से निरस्त हो जाती है । साकल्य कहिये या संनिपत्य - जननं कहिये कुछ फर्क नहीं है । यह जो कहा था ( पृ०५३- पं०९) 'साकल्य (= सामग्र्य) तो सामग्री अन्तर्गत कारकों का ही 30 धर्ममात्र है, ऐसा नहीं कि वह उन कारकों से सर्वथा एकान्ततः पृथक् स्वतन्त्र वस्तु है' इस से तो यही सूचित होगा कि अनेकान्तवादी के मत में आप अनजान स्थिति में भी पहुँच गये। यदि एकान्तवाद मानेंगे तो ( १ ) सकल कारकों से साकल्य एकान्ततः अभिन्न मानने पर साकल्य जैसा कुछ Jain Educationa International - - For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org.
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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