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खण्ड-४, गाथा-१
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पारविशेषणमुपपत्तिमत् । अतोऽनधिगतर्थाधिगन्ता ज्ञातृव्यापारोऽर्थप्रकटताख्यफलानुमेयो जैमिनीयपरिकल्पितो न प्रमाणमिति स्थितम्।
बौद्धमतेन प्रमाणस्वरूपनिदर्शनम् ॥ सौगतैस्तु 'प्रमाणमविसंवादिज्ञानम्' (प्र.वा.१-६) इति वचनाद् अविसंवादकत्वं प्रमाणलक्षणमुक्तम् । अविसंवादकत्वं च प्राप्तिनिमित्तप्रवृत्तिहेतुभूतार्थक्रियाप्रसाधकार्थप्रदर्शकत्वम्। यतोऽर्थक्रियार्थिपुरुषस्तन्नि- 5 वर्त्तनक्षममर्थमवाप्तुकामः प्रमाणमप्रमाणं वाऽन्वेषते, यदेव चार्थक्रियानिवर्त्तकवस्तुप्रदर्शकं तदेव तेनाऽन्विष्यते। प्रत्यक्षानुमाने एव च तथाभूतार्थप्रदर्शके न ज्ञानान्तरमिति ते एव च लक्षणाहे । तयोश्च द्वयोरप्यविसंवादकत्वमस्ति लक्षणम् । प्रत्यक्षेण ह्यर्थक्रियासाधनं दृष्टतयाऽवगतं प्रदर्शितं भवति, अनुमानेन तु दृष्टलिङ्गाऽव्यभिचारितयाऽध्यवसितम् इत्यनयोः प्रदर्शकत्वमेव प्रापकत्वम्। न ह्याभ्यां प्रदर्शितेऽर्थे प्रवृत्ती न प्राप्तिरिति। नान्यत् प्रदर्शकत्वव्यतिरेकेण प्रापकत्वम्, तच्च शक्तिरूपम् । होने मात्र से उन के प्रदर्शक भी नहीं है, प्रदर्शक तो है ही।
___ निष्कर्ष, जैमिनि मत में ज्ञातृव्यापार को प्रमाण बताते हुए जो 'अनधिगत अर्थ अधिगन्तृत्व' ऐसा विशेषण ज्ञातृव्यापार का किया गया है वह संगत नहीं ही है। इस से यह भी सिद्ध होता है कि जैमिनि मत में जो यह कल्पना की गयी है कि - "यद्यपि ज्ञातृव्यापार प्रत्यक्षसिद्ध नहीं है किन्तु 'अर्थप्राकट्य' संज्ञक विषयगत अभिनवजात संस्कारात्मक लिंग से अनधिगतअर्थज्ञापक ज्ञातृव्यापार 15 की अनुमिति होती है” – यह कल्पना प्रमाणभूत नहीं है।
* बौद्धमतानुसार प्रमाणस्वरूप का निरूपण * बौद्धदर्शन के पंडितो का कथन यह है - प्रमाण का लक्षण अविसंवादकत्व है, क्योंकि प्रमाणवार्तिक ग्रन्थ में उन के धर्मकीर्ति आदि आचार्यों का वचन है 'अविसंवादी ज्ञान प्रमाण है।' अविसंवादकता का अर्थ है “वस्तु की प्राप्ति में निमित्तभूत प्रवृत्ति का हेतुभूत जो अर्थ है- जिस से अर्थक्रिया सम्पन्न 20 हो सकती है - उस को प्रदर्शित करना।” – इस का तात्पर्य यह है- जिस को अर्थक्रिया (शीतापनयनादि) की गरज हो ऐसा पुरुष, अर्थक्रिया के लिये सक्षम (अग्नि आदि) अर्थ को ढूँढता है। उस अर्थ को ढूँढने के लिये जैसा ज्ञान होना चाहिये वह यदि अप्रमाण (भ्रमादि) स्वरूप होगा तो पुरुष की प्रवृत्ति सफल नहीं होगी, प्रमाणस्वरूप होगा तभी सफल होगी। अत एव अर्थक्रिया का गर्जी पुरुष अपना ज्ञान प्रमाण है या अप्रमाण- यह तलाशेगा। मतलब कि वह अर्थक्रिया के लिये सक्षम ऐसे अर्थ 25 को दिखानेवाले ज्ञान (= प्रमाण) को ही चाहेगा। ऐसे ज्ञान तो प्रत्यक्षरूप या अनुमान, दो ही होते हैं, जो अर्थक्रियासक्षम अर्थ को प्रदर्शित करें। दो से अतिरिक्त ऐसा कोई (शाब्दादि) ज्ञान ही नहीं होता जो अर्थक्रियासक्षम अर्थ को प्रदर्शित कर सके। अतः वे दो ही लक्ष्यभूत कहे जा सकते हैं। उन दोनों में अविसंवादकत्व लक्षण संगत होते हैं। देखिये :- अर्थक्रिया में सक्षम स्वरूपवाले अर्थ को प्रत्यक्ष से जब देखा गया तब उस को अवगत कर के वह उसी अर्थ का ज्ञाता के समक्ष प्रदर्शन 30 करता है, इसी लिये प्रत्यक्ष 'प्रमाण' भूत हो सकता है। अनुमान भी अर्थक्रियासक्षम अर्थ के अव्यभिचारी लिंग के अवगम के द्वारा अविनाभावि अर्थ का अध्यवसायी होता है। इस प्रकार- प्रत्यक्ष और अनुमान
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