________________
५१२
...........................
परिशिष्ट-२ द्वितीयकाण्ड- चतुर्थखंडे मूलगाथा - अकारादि गाथा-आद्यांश गाथा/पृष्ठ | गाथा-आद्यांश ।
गाथा/पृष्ठ अण्णायं पासंतो अद्दिठं च ................ १३/४५९ | णाणं अपुढे अविसए ........................ २५/४८९ अद्दिट्ट् अण्णायं च .......................... १२/४५८ | तम्हा अण्णो जीवो अण्णे ................... ३८/५०१ अह पुण पुव्वपयुत्तो ........................ ३९/५०१ | तम्हा चउविभागो जुज्जइ ................... १७/४८२ एवं जिणपण्णत्ते.
......३२/४९७ | दसणणाणावरणक्खए ........... .......९/४५५ एवं जीवद्दव्वं अणाइ.......
| दंसणपुव्वं गाणं णाण- ....................... २२/४८८ एवं सेसिंदियदंसण .........
२४/४८८ | दंसणमोग्गहमेत्तं घडोत्ति ...................... २१/४८७ केई भणंति जइया ........ .......... .........४/४४६ | दवडिओ वि होऊण ..........
२/४४४ केवलणाणावरणक्खय........ ५/४५१ | पण्णवणिज्जा भावा समत्त...................
.१६/४८१ केवलणाणामणंतं ...... १४/४६० | परवत्तव्वयपक्खा
...... १८/४८४ केवलणाणं साई ...... .३४/४९९ परिसुद्धं सायारं ..
...... ११/४५७ चक्खु-अचक्खु-अवहि २०/४८६ | भण्णइ खीणावरणे जह .................
......... ६/४५२ जइ ओग्गहमेत्तं दंसणं..
...... २३/४८८ भण्णइ जह चउणाणी........ ....... १५/४६१ जह सव्वं सायारं जाणइ ........ .......१०/४५६ | मइसुयणाणणिमित्तो.........
...... २७/४९१ जइ कोइ सट्ठिवरिसो ...
...................
४०/५०२ | मणपज्जवणाणतो णाणस्स .................. .. ३/४४५ जं अप्पुट्ठा भावा ओहि .................. २९/४९२ | मणपज्जवणाणं दंसणं ति. ......२६/४९० जं अप्पुढे भावे जाणइ .............
संखेज्जमसंखेज्जं .............
.. ४३/५०५ जं पच्चक्खग्गहणं ण ......................... २८/४९२ | संतम्मि केवले दसणम्मि ....................... ८/४५४ जं सामण्णग्गहणं दसण ........ .....१/२ , साई अपज्जवसियं ति......
| सा अपज्ज वासय ति........................३१/४९७ जीवो अणाइणिहणो केवल ....... .......३७/५०१ | सम्मण्णाणे णियमेण ............
...........३३/४९८ जीवो अणाइणिहणो जीवत्ति ................. ४२/५०४ | सिद्धत्तणेण य पुणो उप्पण्णो ................ ३६/५०० जेण मणोविसयगयाण ........................ १९/४८५ | सुत्तम्मि चेव साई अपज्ज- ....................७/४५२ जे संघयणाईया भवत्थ .......................
.. ३५/४९९ ।
अस्त नहि, अमर बना भान मानव जीवन के प्रत्येक पल की अप्रमत्त रुप से सदुपयोग करके, प्रत्येक रक्तबिंदु का कस निकालकर उन्होंने साधना का अपार अमृत पूंटा। उनके जीवन की प्रत्येक पहेली से, कलम के द्वारा आलेखित अक्षरों से, प्रवचन की वाणी से यह अमृत बरसकर अनेकों के जीवन को तंदुरस्त बनाता रहा। वि.सं.१९६७ के चैत्र वद६ के दिन उद्भव पायी हुई यह पवित्र जीवन गंगा वि.सं.२०४७ के चैत्र वद १३ के दिन काल समुद्र में मिल गयी तब तक ८१ वर्ष के कालपट पर बहकर उसने अद्भुत और आहलादक हरित सौंदर्य का सर्जन किया।
प्रभुशासन की ७७वीं पाट को उन्होंने सुयोग्य रुप से शोभायमान बनाया है। गुरुप्रेम की उज्जवल विरासत को उन्होंने अच्छी तरह से संम्हाला है। सकल संघ को उन्होंने सुयोग्य नेतृत्व दिया है। कडवे धूंट पीटकर भी उन्होंने सभी को अमृत ही पिलाया है।
वीरशासन के गौरववंत गगन का यह देदीप्यमान भानु 'अस्त नहीं लेकिन तेजप्रभा से अमर हो गया है।' भुवनभानुसूरि जवयंत बने रहो !
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org