SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 502
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड-४, गाथा-१७, केवलभेदाभेदविमर्श ४८३ दर्शनयोः पृथक् क्रमाऽक्रमविभागो युज्यते । कुतः पुनः सकलविषयत्वं भगवति केवलस्य ? अनावरणत्वात्, न ह्यनावृतमसकलविषयं भवति । न च प्रदीपादिना व्यभिचारो अनन्तत्वात् । अनन्तत्वं च द्रव्यपर्यायात्मकानन्तार्थग्रहणप्रवृत्तोत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकोपयोगवृत्तत्वेनाऽक्षयत्वात् । यथा च सकलपदार्थविषयं सर्वज्ञज्ञानं तथा प्राक् प्रदर्शितम् । ततोऽक्रमोपयोगद्वयात्मकमेकमिति स्थितम् । न चाक्रमोपयोगद्वयात्मकत्वे कथं तस्य केवलव्यपदेश 5 इति क्रमाक्रमभिन्नोपयोगवादिना प्रेर्यम्, इन्द्रियालोक-मनोव्यापारनिरपेक्षनिरावरणात्मसत्तामात्रनिबन्धनतथाविधार्थविषयप्रतिभासस्य तथाविधव्यपदेशविषयत्वात् । अद्वैतैकान्तात्मकं तु तद् न भवति सामान्यविशेषोभयानुभयविकल्पचतुष्टयेऽपि दोषानतिक्रमात् । तथाहि न तावत् सामान्यरूपतया तदद्वयम् सामान्यस्य विशेषनिबन्धनत्वात् तदभावे तस्याप्यभावात् । नापि विशेषमात्रत्वात् तदद्वयम् अवयवावयविविकल्पद्वयानतिक्रमात्। न तावत् तद् अवयवरूपम् अवयव्यभावे तदपेक्षावयवरूपताऽसंभवात्। न चावयविरूपम् 10 व्याख्या की जाती हैं भेद न होने का कारण सकलविषयकत्व प्रश्न : भगवान में सकलविषयकत्व किस कारण से आया ? उत्तर :- अनावरण से, आवरण नष्ट हो जाने पर ज्ञान में परिमितविषयता नहीं होती । यहाँ व्यभिचार शंका : प्रदीप अनावृत हो फिर भी वह सकलविषयकप्रकाशक नहीं होता । इस शंका का निवारण :- ज्ञान अनन्त है केवली का, अतः अनावृत ज्ञान सकलविषयक ही होगा । प्रदीप की शक्ति सीमित होने से वह सान्त है अतः वह सकलविषयक भले न हो । प्रश्न : भगवान 15 का ज्ञान अनन्त क्यों है ? उत्तर :- अक्षय होने से । अर्थसमुदाय द्रव्य-पर्यायोभयात्मक है, (वे अनन्त होते हैं, ) उन के ग्रहण के लिये तत्पर केवली का उपयोग स्वयं उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य से युक्त होने से धौव्यांश के द्वारा अक्षय होता है । सर्वज्ञ का ज्ञान सकलपदार्थग्राही कैसे होता है वह पहले प्रथम खंड में कहा जा चुका है । [ अक्रमिक अभिन्न ज्ञानदर्शन में 'केवल' शब्दप्रयोग की उपपत्ति ] निष्कर्ष यह फलित हुआ केवली में अक्रमिक ज्ञान- दर्शनोभयात्मक एक उपयोग होता है (यानी दोनों में कथंचिद् अभेद है ।) यदि क्रमिक या अक्रमिक भिन्न भिन्न ज्ञान- दर्शनोपयोगवादी ऐसा पूछे कि अक्रमिक अभिन्न उपयोगद्वयात्मक एक बोध मानेंगे तो उस में 'केवल' शब्द व्यवहार कैसे संगत होगा ? केवल शब्द का अर्थ तो भिन्नतासूचक है । उत्तर यह है कि 'केवल' शब्द भिन्नतासूचक नहीं है किन्तु 'केवल' शब्द का वाच्य विषय है इन्द्रिय, प्रकाश एवं मन की प्रवृत्ति से निरपेक्ष, निरावरण, 25 एकमात्र आत्मसत्ता से ही होनेवाला परिपूर्ण विषयप्रतिभास । - Jain Educationa International - - [ एकान्त ज्ञानाद्वैतवाद अमान्य ] यहाँ एकान्त अद्वैतवादी की तरह ज्ञानाद्वैतरूप उपयोग में हमारा तात्पर्य नहीं है । कारण, एकान्त अद्वैतवाद में चार में से एक भी विकल्प दोषमुक्त नहीं है। एकान्त अद्वैत तत्त्व १ - सामान्य है, २ - विशेष है, ३ - उभयरूप है या ४- अनुभयरूप है ? १ - एकान्त अद्वैत सामान्यरूप नहीं है क्योंकि ऊपर-नीचे की 30 तरह सामान्य- विशेष का भी परस्पर सापेक्ष ही अस्तित्व होता है अतः विशेष के विना कोई सामान्य नहीं होता । २ - एकान्त अद्वैत मात्र विशेषात्मक भी नहीं है क्योंकि उस के ऊपर दो विकल्प ऊठते 20 For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy