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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ = द्रव्यादयः समस्तश्रुतज्ञानस्य = द्वादशाङ्गवाक्यात्मकस्य दर्शनायाः = दर्शनप्रयोजिकायास्तद्वाक्योपजाताया बुद्धेर्विषय आलम्बनम् । मतेरपि त एव शब्दानभिधेया विषयः शब्दपरिकर्मणानपेक्षस्य ज्ञानस्य यथोक्तभावविषयस्य मतित्वात् । अवधि-मनःपर्याययोः पुनरन्योन्यविलक्षणा भावा विषयः, अवधेः पुद्गला: मनःपर्यायज्ञानस्य मन्यमानानि द्रव्यमनांसि विषयः इति असर्वार्थान्येतानि मत्यादिज्ञानानि परस्परविलक्षणविषयाणि च अत एव भिन्नोपयोगरूपाणि ।।१६।।
एवमसकलार्थत्वं भिन्नोपयोगपक्षे दृष्टान्तसमर्थनद्वारेण प्रदोपसंहारद्वारेणाक्रमोपयोगात्मकमेकं केल्लम्, अन्यथा सकलार्थता तस्यानुपपन्नेति दर्शयितुमाह(मूलम्) तम्हा चउब्विभागो जुज्जइ ण उ णाणदंसणजिणाणं ।
सयलमणावरणमणंतमक्खयं केवलं जम्हा।।१७।। 10 (व्याख्या) यस्मात् केवलं सकलं = सकलविषयं तस्मात् न तु = नैव ज्ञान-दर्शनप्रधानानां निर्मूलि
ताशेषघातिकर्मणां जिनानां छद्मस्थवस्थोपलब्धतत्तदावरणक्षयोपशमकारणभेदप्रभवमत्यादिचतुर्ज्ञानेष्विव ज्ञानहै, किन्तु उपलक्षण से मति की भावना भी असम्पूर्णार्थकत्वरूप से समझ लेना है। कारण, जैसे श्रुत सर्वद्रव्य-असर्वपर्याय ग्राही है वैसे मति भी सर्वद्रव्य-असर्वपर्यायग्राही है, यानी दोनों अभिन्नार्थक हैं
मतलब समसंख्यकार्थग्राही हैं। अतः गाथा पूर्वार्ध में श्रुत के असम्पूर्णार्थग्रहणात्मकता के निरूपण से 15 मति का भी निरूपण संगृहीत है। प्रज्ञापनीय यानी शब्द के द्वारा प्रतिपादन के योग्य द्रव्यादि भाव ।
समस्त श्रुतज्ञान यानी द्वादशाङ्गवाक्यसमुदाय । दर्शना यानी दर्शनप्रयोजक बुद्धि जो कि द्वादशांगवाक्यों से ही निष्पन्न होती है। वे ही द्रव्यादिभाव जब शब्द के विना ही ज्ञात (ज्ञान विषय) होते हैं तब शब्दपरिकर्मणा यानी शब्द के सांकेतिक व्यवहार से निरपेक्ष होनेवाले ज्ञान के विषय बनते हैं, ऐसा
सर्वद्रव्य-असर्वपर्याय को विषय करने वाला ज्ञान मतिज्ञानरूप होता है। उपरांत, अवधिज्ञान का विषय 20 पुद्गलद्रव्य है जब कि मनःपर्यायज्ञान का विषय सिर्फ मननक्रियान्वित द्रव्यमनःपुद्गल होता है। ये
चारों ज्ञान परस्पर भिन्नोपयोग रूप हैं एकोपयोगरूप नहीं है, क्योंकि असम्पूर्णार्थग्राही एवं अन्योन्य भिन्न विषय के ग्राहक हैं।।१६।।।
[केवलज्ञान सकलार्थ - निरावरण - अनन्त - अक्षय ] १६ वीं गाथा के द्वारा उक्त प्रकार से भिन्नोपयोगवादीयों के पक्ष में असम्पूर्णार्थकता का दृष्टान्तप्रदर्शन 25 द्वारा निदर्शन कर के अब उपसंहार द्वारा १७ वी गाथा में मूल ग्रन्थकार यह दिखाना चाहते हैं कि केवलोपयोग 'एक' एवं 'अक्रमिक' होता है, अन्यथा उस में सकलार्थकता संगत नहीं होगी।
गाथार्थ :- अत एव ज्ञानदर्शनयुक्त केवलीयों में चार ज्ञानों की तरह भेद घट नहीं सकता, क्योंकि केवल (उपयोग) सम्पूर्ण, आवरणमुक्त, अनंत और अक्षय होता है।।१७।।
व्याख्यार्थ :- केवलोपयोग यतः सकलविषयक है, अतः ज्ञानदर्शन की मुख्यतावाले सर्वघातीकर्मों 30 के निर्मूलनकारी जिनों में, छद्मस्थावस्थान्तर्गत स्वस्वआवरण के क्षयोपशमरूप कारणभेदमूलक भेदवाले
मति आदि चार ज्ञानों की तरह पृथक् पृथक् क्रमिकता या अक्रमिकरूप से भी भेद करना उचित नहीं है। भेद का अनौचित्य दिखाने के लिये सकल-अनावरण-अनन्त-अक्षय पदों की हेतु-हेतुमद्भावगर्भित
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