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________________ ४७७ खण्ड-४, गाथा-१५, केवलिकवलाहारविमर्श प्रसज्यत एवेति प्रसङ्गसाधनं भवदभिप्रेतव्याप्तिबलात् क्रियते इति न प्रागुक्तदोषावकाश: (४६५-१)। द्वितीयपक्षेऽपि (४६५-३) न केवलिभुक्तिः सिध्यति नाप्यनाहारौदारिकशरीरस्य चिरतरकाल-स्थायित्वं विरुध्यते' इति यद्दषणमुक्तम् तदनुक्तोपालम्भरूपम्। न ह्येवं केवलिभुक्त्यादिकमस्माभिः साध्यते किन्तु प्रदर्शितप्रमाणात् सर्वज्ञप्रणीतागमाच्च। 'न च यदतिशयवत्....' (४६५-४) इत्याद्यप्यसंगतम् संवत्सरमात्रशरीरस्थितिसिद्धावपि केवलिनामतोऽतिशयात् प्रभूततरकालस्थित्यसिद्धेः। न च तावत्कालप्रकृता- 5 हारविरहप्रतिपादकमपि केवलिनां सूत्रमुपलभ्यते। यच्च (४६५-६) 'संयोगस्यावस्थानमात्यन्तिकं न भवति' इत्यादि तत् सिद्धमेव साधितम् । यच्च (४६६-२) 'सुनिश्चिताऽसम्भवबाधकप्रमाणत्वं प्रकृताहारविरहेऽपि चिरतरमौदारिकशरीरस्थितेः प्रतिपादकस्य सूत्रस्यास्त्येव' इत्युक्तम् तदपि प्रकृताहारविरहे केवलिप्रकृतशरीरस्थिते. प्रतिपादकस्य सूत्रस्यैवाभावादयुक्तम् । यदपि (४६४-२१) 'आहारविरहातिशयप्रतिपादकं सूत्रं प्रथमतीर्थकृदादेः' व्याप्ति से आप आत्यन्तिक शरीरस्थिति का प्रसञ्जन करते हो। अतः उन दोनों विकल्पों के द्वारा (४६५- 10 १४) आप जो दोष देना चाहते हैं (४६५-१५) वे निरवकाश ही हैं। [विग्गहगइमावण्णा... इत्यादि सूत्रों से कवलाहार सिद्धि ] ____ दिगम्बर विद्वानने दो विकल्प कर के, प्रथमविकल्प का खण्डन कर के (जिस का यहाँ अभी ही प्रत्युत्तर दे दिया है) दूसरे विकल्प में (४६५-२२) भी जो दो दोष लगाये थे - केचलिभुक्ति की असिद्धि और निराहार औदारिकशरीरस्थिति के चिरकालावस्थिति में विरोधाभाव, वह भी हमारे द्वारा अकथित 15 मान्यता के ऊपर प्रहार है। ‘अतिशयदर्शन शरीरस्थिति का अहेतु है' यह दीखाने मात्र से केवलीभुक्ति की सिद्धि हो जायेगी ऐसा स्वप्न हम नहीं देखते हैं किन्तु विग्गहगइमावण्णा...ऐसा जो प्रमाण हमने दिखाया है उस से, उपरांत सर्वज्ञभाषित (अन्य आगम) प्रमाणों से हम केवलि कवलाहार की सिद्धि कर दिखाते हैं। यह जो आपने कहा था - 'अतिशययुक्त होता है वह आत्यन्तिक ही होता है ऐसा सिद्ध करने का हमारा प्रयास नहीं...' (४६५-२५) इत्यादि, वह भी असंगत है क्योंकि जैसे वहाँ आत्यन्तिकता 20 के बदले कियत्कालावस्थिति को आप सिद्ध करते हैं वैसे ही हमारे पक्ष द्वारा कियत्कालभोजन भी सिद्ध किया जा सकता है। उपरांत कियत्कालशरीरस्थिति की सिद्धि करने पर भी वहाँ संवत्सरमात्र कालीन निराहारशरीरस्थिति की सिद्धि मानना ही उचित है, केवलि की उस से ज्यादा निराहारशरीरस्थिति किसी भी प्रमाण या अतिशय से सिद्ध नहीं है। ऐसा कोई सूत्र भी उपलब्ध नहीं है जो चिरतर काल तक (केवलज्ञान से ले कर मोक्ष होने के काल तक) कवलाहाराभाव का साधक हो। 25 [दिगम्बरकथित बाधकप्रमाण के असम्भव की असिद्धि 1 यह जो कहा था कि (४६५-३२) - कोई भी संयोग की स्थिति आत्यन्तिक नहीं होती (अतः सर्वज्ञ की मुक्ति रुकेगी नहीं) उस में हमें कोई बाध नहीं है, सिद्ध साधन ही है। यह जो कहा था कि (४६६-१३) – ‘कवलाहार के विना भी चिरतरकालीन औदारिकशरीरस्थिति का सूचक जो सूत्र है उस में सुनिश्चित रूप से बाधक प्रमाण का असंभव सिद्ध है' - वह भी अत्यन्त अयुक्त 30 है क्योंकि श्वेताम्बर या दिगम्बर किसी भी शास्त्र में कवलाहार के विना केवली के शरीर की चिरतरकालीन स्थिति का सूचक एक भी सूत्र उपलब्ध नहीं है। तथा (४६४-२१) आहाराभाव के अतिशय (यानी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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