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________________ खण्ड-४, गाथा-१५, केवलिकवलाहारविमर्श शरीरवेदनेत्युक्तम् । बुभुक्षामन्तरेणापि शरीरं स्थापयितुमिच्छरश्नातीति चेत् ? न, अनन्तवीर्यस्य भगवता शरीरस्थितिमिच्छोः प्रकृताहारमन्तरेणापि तत्स्थापनासामर्थ्याऽविरोधात्। शरीरतिष्ठापयिषापि बुभुक्षाक्त् क्लेश एवेति न प्रथमपक्षादस्य विशेष इति न द्वितीयः पक्षोपि। नापि तृतीयपक्षाभ्युपगमोऽपि युक्तः, प्रकृताहारविकलस्यैव विवक्षितकालभाविशरीरस्थितिस्वभावकल्पनयैव दोषाभावाद् अन्यथाऽशिष्टव्यवहारेष्वपि तत्स्वभावकल्पनायाः प्रसङ्गात्। तीर्थप्रवर्तनस्य तु 5 व्यापारव्याहारलक्षणस्य तत्कालभावि विवक्षाचिकीर्षाऽभावेऽपि सद्भावो न विरुध्यते, तीर्थप्रवर्तनस्य सद्भावनाविशेषोत्पन्नविशिष्टफलरूपत्वात्। सकलक्लेशोपरमेऽपि च तीर्थप्रवर्त्तनं स्वयमभ्युपगतं परेण, में 'छुहासमा नत्थि वेयणा' भूख जैसी कोई वेदना नहीं - ऐसा सुभाषित सुविदित है। ___ दूसरा विकल्प - भूख का शमन नहीं किन्तु अपने देह की चिरकालीन स्थिति बनायी रखने की इच्छावाले केवली भगवंत कवलाहार करते हैं। - यह विकल्प भी अनुचित है क्योंकि भगवान् 10 तो अनन्तबलवीर्यशाली है, कवलाहार के विना भी अपने शरीर की स्थिति बनाये रखने की इच्छा करें तो आसानी से शरीरस्थिति बना सकते हैं, ऐसा प्रबल सामर्थ्य केवली में स्वीकार लेने में कोई विरोध नहीं है। सच बात तो यह है कि भूख की तरह शरीरधारणेच्छा भी क्लेश ही है जो केवली में हो नहीं सकती। अतः प्रथम विकल्प और दूसरे विकल्प में तत्त्वतः भेद न रहने से प्रथम विकल्प अनुचित ठहरने पर दूसरा भी विकल्प अनुचित सिद्ध हो जाता है। तीसरे विकल्प का स्वीकार भी अयुक्त है। जब स्वभाव को ही कवलाहारप्रयोजक मानना है तो उस के बदले आयुःपर्यन्त चिरकालीन शरीरस्थिति को ही स्वाभाविक मान लेने में क्या बिगडता है ? यदि कवलाहारात्मक एक अशिष्ट प्रवृत्ति को स्वाभाविक मान लेंगे तो फिर अन्य भी अपशब्दभाषणादि अशिष्टप्रवृत्ति स्वभावतः होने की कल्पना प्रसक्त होगी। [स्वाभाविकतीर्थस्थापनप्रवृत्ति के प्रश्न का उत्तर - दिगम्बर ] यदि प्रश्न हो – कवलाहार की स्वभावतः प्रवृत्ति जब नहीं मानेंगे तो स्वभावतः तीर्थस्थापनप्रवृत्ति भी कैसे मान सकेंगे ? उत्तर यह है कि तीर्थप्रवृत्ति का व्यापार तो व्याहार स्वरूप है, व्याहार यानी जल्पन-देशना। यद्यपि देशनाकाल में न तो बोलने की इच्छा होती है न तो तीर्थ की चिकीर्षा – तीर्थस्थापना करने की इच्छा भी नहीं होती है - फिर भी तीर्थस्थापना प्रवृत्ति होने में कोई विरोध नहीं है। कारण, 25 तीर्थस्थापना प्रवत्ति तो - पर्वावस्था (छद्मस्थ अवस्था) में जो प्रकष्टभावना सर्वजीवों को संसार सागर तीराने के लिये की गयी थी - उसी का फलविशेषरूप है अतः वह स्वाभाविक होने में कोई दोष नहीं है। आश्चर्य है कि एक ओर आपने स्वयं मान लिया है कि तीर्थप्रवृत्ति होती तो है, यद्यपि केवली को कोई क्लेश बचा नहीं है जिस को मिटाने के लिये तीर्थप्रवृत्ति आवश्यक कही जा सके। दूसरी ओर क्लेश (भूखादि) की उपशान्ति के लिये आप स्वभावतः कवलाहारप्रवृत्ति मानते हैं यह 30 कैसा विरोधाभास ?! हकीकत यह है कि केवली में न तो कोई क्लेश बचा है न तो उस के शमन की कांक्षा बची है फिर कवलाहार की कल्पना क्यों ? यदि फिर भी ऐसी कल्पना करते रहेंगे तो ___15 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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