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________________ ४५६ AU सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ यदेव ज्ञानं तदेव दर्शनमित्यस्मिन्नेव वादे सर्वज्ञतासंभव इत्याह - (मूलम्) जइ सव्वं सायारं जाणइ एक्कसमएण सव्वण्णू। जुज्जइ सयावि एवं अहवा सव्वं ण याणाइ ।।१०।। (व्याख्या) यदि आकारात्मकं वस्तु भवनं, भवनात्मकं वा आकारात्मकं सामान्य-विशेषयोरविनिर्भागवृत्तित्वात् 5 सर्वं साकारं जानस्तदात्मकं सामान्यं तदैव पश्यति तत् पश्यन् वा तदव्यतिरिक्तं विशेषं तदैव जानाति उभयात्मकवस्त्ववबोधैकरूपत्वात् सर्वज्ञोपयोगस्य; तदा सर्वज्ञत्वं सर्वदर्शित्वं च तस्य सर्वकालं युज्यते, प्रतिक्षणमुभयात्मकैकरूपत्वात् तस्य। अथवा सर्वं सामान्यं साकारं वा वस्तु न पश्यति न जानाति च तथाभूतयोस्तयोरसत्त्वात् जात्यन्धवत् आकाशवद्वा। अथवा सर्वं न जानाति एकदेशोपयोगवृत्तित्वाद् मतिज्ञानिवत् । युगपत् क्रमेण चैकान्तभिन्नोपयोगद्वयादिमते न सर्वज्ञता सर्वदर्शिता चेत्याशय आचार्यस्य । [ ज्ञान-दर्शन अभेदपक्ष में सर्वज्ञता की घटमानता ] ज्ञान-दर्शन अभेद पक्ष में सर्वज्ञता की संगति का प्रदर्शन करते हैं - गाथार्थ :- सर्वज्ञ यदि एक समय में सर्व साकार वस्तु को जानता है तो हर हमेश वह (जानता ही रहे यह) युक्त ही है। अथवा तो (कहना होगा कि) वह कुछ भी नहीं जानता ।।१०।। व्याख्यार्थ :- यदि यह मान्य है कि - आकारात्मक वस्तुमात्र ही भवन (भूधात्वर्थ सत्ता सामान्य) 15 है, अथवा भवनात्मक (सामान्यरूप) जो कुछ भी है वह साकार है, क्योंकि सामान्य एवं विशेष परस्पर मिल-जुल कर रहते हैं - तो मतलब यह हुआ कि सभी साकार वस्तु को जानने के लिये प्रवर्त्तमान ज्ञान उसी क्षण में साकार (विशेष) अभिन्न सामान्य का दर्शन भी करता ही है; अथवा सामान्य को देखने में प्रवृत्त उपयोग उसी समय सामान्याभिन्न विशेष का ग्रहण करता ही है। कारण, सर्वज्ञ का उपयोग (निरावरण होने से) उभयात्मकवस्तुबोधात्मक ही होता है। इस स्थिति में स्पष्ट है कि 20 केवली में प्रतिक्षण सर्वज्ञत्व एवं सर्वदर्शित्व का होना न्यायसंगत ही है क्योंकि सर्वज्ञ केवली भी प्रतिक्षण ज्ञान-दर्शन उभयोपयोगात्मक एकरूप होता है। ____ यदि यह अमान्य है तो उस के विकल्प में अर्थापत्ति से यही फलित होगा कि साकार या निराकार (सामान्य) किसी भी पदार्थ को केवली न तो देखता है न तो जानता है, क्योंकि साकारभिन्न निराकारग्राही अथवा निराकार भिन्न साकारग्राही दर्शन या ज्ञान खपुष्पवत् असत् है, उदा. जात्यन्ध 25 पुरुष अथवा आकाश। ऐसा नहीं है कि आकाश या जात्यन्ध पुरुष देखता तो है किन्तु जानता नहीं है (अथवा जानता तो है लेकिन देखता नहीं है।) जब देखता नहीं तो जानता भी नहीं (अथवा जानता नहीं तो देखता भी नहीं) यह व्यतिरेक उदाहरण समझना । चतुर्थपाद में ग्रन्थकार कहते हैं कि - अथवा तो कुछ नहीं भी जानता है, (सर्वग्राही नहीं है) क्योंकि केवली का उपयोग एकदेशीय यानी अंशग्राहिवृत्तिवाला (स्वरूपवाला) है जैसे मतिज्ञानी का मतिज्ञान 30 उपयोग। मतिज्ञानी का मतिज्ञान अंशग्राहि ही होता है सर्वग्राही नहीं होता। ग्रन्थकार आचार्य दिवाकरसूरिजी का तात्पर्य यह है कि चाहे क्रमशः चाहे युगपत्, एकान्तभिन्न उपयोगद्वय (यानी ज्ञान सिर्फ विशेषग्राही, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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