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________________ खण्ड-४, गाथा-८/९, केवलद्वयभेदाभेदविमर्श ४५५ व्याख्या :- क्रमोत्पादे सति केवलदर्शने न तदा ज्ञानस्य संभवः, तथा केवलज्ञाने न दर्शनस्य, तस्मात् सनिधने केवलज्ञानदर्शने।।८।। [ग्रन्थकर्तुः स्वपक्षनिरूपणम् ] अत्र प्रकरणकारः क्रमोपयोगवादिनं तदुभयप्रधानाक्रमोपयोगवादिनं च पर्यनुयुज्य स्वपक्षं दर्शयितुमाह(मूलम्) दंसणणाणावरणक्खए समाणम्मि कस्स पुव्वअरं होज्ज ? समं उप्पाओ; 'हंदि दुए णत्थि उवओगा'।।९।। (व्याख्या-) सामान्य-विशेषपरिच्छेदकावरणापगमे समाने कस्य प्रथमतरमुत्पादो भवेत् ? अन्यतरस्योत्पादे तदितरस्याप्युत्पादः स्यात्, न चेद् अन्यतरस्यापि न स्यादविशेषाद् इत्युभयोरप्यभावप्रसक्तिः । ‘अक्रमोपयोगवादिनः कथम्' इति चेत् ? समम् = एककालम् उत्पादः तयोर्भवेत्, सत्यक्रमकारणे कार्यस्याऽप्यक्रमस्य भावाद् इत्यक्रमौ द्वावुपयोगौ। अत्रैकोपयोगवाद्याह- हंदि दुवे णत्थि उवओगा इति द्वावप्युपयोगौ नैकदेति ज्ञायताम् 10 सामान्यविशेषपरिच्छेदात्मकत्वात् केवलस्येति ।।९।। होगी, एवं केवलज्ञान के काल में दर्शन की सत्ता नहीं होगी। इस प्रकार वे दोनों केवलज्ञान-केवलदर्शन सपर्यवसान हो जायेंगे ।।८।। प्रकरणकर्ता क्रमोपयोगवादी एवं ज्ञान-दर्शनोभयप्रधान अक्रमोपयोगवादी पक्षद्वय में दोषारोपण करने के बाद अब अपने पक्ष का निरूपण करते हैं - [समकालीन उपयोगद्वय का अभाव अभेद साधक ] गाथार्थ :- दर्शन-ज्ञान के आवरणों का क्षय तुल्य होने पर कौन प्रथम ? (उत्तर :- अत एव) समान काल में उत्पाद होगा। (ग्रन्थकार-) अरे ! दो उपयोग नहीं होते।।९।। व्याख्यार्थ :- जब सामान्यबोधक दर्शन के आवरण का एवं विशेष के बोधक ज्ञान के आवरण का क्षय निर्विशेष है तब क्रमिकवाद में कौन पहले उत्पन्न होगा- इस प्रश्न का संतोषकारक उत्तर 20 अशक्य है। कारण, एक की उत्पत्ति होने पर अन्य की भी उत्पत्ति अनिवार्य है। यदि अन्य की उत्पत्ति नहीं होगी तो एक की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि दोनों में कोई सबल-दुर्बल भाव नहीं है। फलतः दोनों की उत्पत्ति प्रतिबद्ध हो जायेगी। यदि युगपद् वादी को यहाँ पूछा जाय कि आप के मत में क्या तत्त्व है ? तो वह कहेगा कि उन दोनों का एक ही काल में उत्पाद मानेंगे। जिन के कारणों में क्रमिकता नहीं है तो उन कार्यों में भी क्रम संभव नहीं। यानी दोनों उपयोग एक 25 साथ प्रवृत्त होंगे। यहाँ टीप्पण करते हुए मूल ग्रन्थकार - जो कि स्वयं अभेदवादी यानी दो पृथक् नहीं किन्तु एकोपयोगवादी है - कहते हैं - अरे ! दो उपयोग ही नहीं होते एक साथ ! इतना समझ लो ! केवल उपयोग स्वयं एक ही होता है और वही सामान्य-विशेष अशेष वस्तु का ग्राहकस्वरूप होता है।।९।। 15 A. व्याख्याकार ने पहले (पृ.४७८) में प्रश्न उठाया था- जुगवं दो नत्थि उवओगा... उस के समाधान में कहा था - मानस विकल्पद्वय के यौगपद्य का यहाँ निषेध है, इन्द्रियज्ञान और मनोविज्ञान के यौगपद्य का निषेध नहीं है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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