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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ नेकप्रत्ययानुत्पत्तौ स्वभाव एव कारणम् नावरणसद्भावः । संनिहितेऽपि च व्यात्मके विषये विशेषांशमेव गृह्णन् केवली तत्रैव सामर्थ्यात् सर्वज्ञ इति व्यपदिश्यते सर्वविशेषज्ञत्वात्, सर्वसामान्यदर्शित्वाच्च सर्वदर्शी ।
__ यच्चैवंव्याख्यायामकिञ्चिज्ज्ञत्वं केवलिन:, होढदानं चेति दूषणम्, तन्न, यतो यदि तत् केवलं ज्ञानमेव
भवेद् दर्शनमेव वा ततः स्यादकिञ्चिज्ज्ञता, न चैवम् । आलदानमपि न सम्भवति 'यं समयं' इत्याधुक्तव्याख्यायाः 5 सम्प्रदायाऽविच्छेदतोऽपव्याख्यानत्वाऽयोगात्। न च दुःसम्प्रदायोऽयम् तदन्यव्याख्यातॄणामविसंवादात् 'जं
समयं च णं समणे भगवं महावीरे' (कल्पसूत्रे) इत्यादावप्यागमे असकृदुच्चार्यमाणस्यास्य शब्दस्यैतदर्थत्वेन सिद्धत्वात्। ततो दुर्व्याख्यैषा- 'यैः समकं = यत्समकम्' इति भवतैव होढदानं कृतम् ।
[ पूर्वपक्षप्रदर्शितव्याख्याने दूषणनिरूपणम् ] एते च व्याख्यातारः तीर्थकरासादनाया अभीरवः तीर्थकरमासादयन्तो न बिभ्यतीति यावत् । सा 10 से चाक्षुषज्ञान काल में श्रावणज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती' – ऐसा नहीं हे, यदि ऐसा माना जाय
तो फिर श्रावणज्ञान काल में आवरण तदवस्थ होने से श्रावणज्ञान नहीं होगा। सारांश, एक साथ अनेक उपयोग की अनुत्पत्ति में तथा-स्वभाव ही जिम्मेदार है न कि आवरणसत्ता। भले ही केवलि के लिये सामान्य-विशेषउभयात्मक सर्व पदार्थ संनिहित हैं, फिर विशेषांश से वस्तु को ग्रहण करता
हुआ केवलज्ञानी सर्व वस्तु को विशेषांश से ग्रहण करने के सामर्थ्य के कारण ही 'सर्वज्ञ' ऐसा संबोधन 15 प्राप्त करता है, क्योंकि वह समस्त विशेष का ज्ञाता है। इसी तरह समस्त सामान्य का दृष्टा होने से ही वह 'सर्वदर्शी' कहा जाता है।
[ पूर्वपक्षकृत व्याख्यान में दूषणोद्धार ] उक्त प्रकार से व्याख्या के ऊपर दो दूषण लगाये जाते हैं - सर्वज्ञ कुछ भी नहीं जानता, तथा केवली के ऊपर असंगत प्ररूपणा का आरोप । पूर्वपक्षी इस का निषेध करते हुए कहते हैं - यदि 20 केवली को अकेला ज्ञान या अकेला दर्शन ही होता तब तो उस में अकिंचिद्द्वता का दूषण प्रसक्त
होता (ज्ञान विशेषग्राही है, किन्तु सामान्यमुक्त विशेष का अस्तित्व ही नहीं है, अत एव केवली कुछ नहीं जानता यह दोष लगता है) किन्तु वह अनन्तर क्षण में दर्शन भी करता है इस लिये कोई दोष नहीं है। अत एव असंगत प्ररूपणा का आरोप भी गलत है। यदि क्रमप्रतिपादक व्याख्या जूठी
होती तब तो 'केवलीने ऐसा कहा है' इस प्रकार गलत आरोप प्रसक्त होता, किन्तु वह व्याख्या अविच्छिन्न 25 परम्परा से समर्थित होने से गलत नहीं है। वह परम्परा दूषित नहीं है क्योंकि अन्य अन्य व्याख्याताओं
के साथ अविसंवादी है। “जं समयं च णं समणे भगवं महावीरे...” (कल्पूसत्र) इत्यादि आगम शास्त्रों में बार बार जो 'जं समयं' शब्द सुनाई देता है उस का भी पूर्वाचार्य व्याख्यात अर्थ, उक्त प्रकार से ही सिद्ध है। अत एव - जिन पंडितोने 'जं समयं' का 'यैः समकं' (जिन से समान) ऐसा अर्थ
कर के भगवान के नाम पर चडा दिया है उन्होंने ही भगवान के ऊपर गलत प्ररूपणा का आरोप 30 लगाये रखा है।
ये (पूर्वपक्षी) व्याख्याकार श्री तीर्थंकरभगवंतों की आशातना के अभीरु हैं, मतलब तीर्थंकरों की अवज्ञा करते हुए नहीं डरते। १-'तीर्थंकर कुछ भी नहीं जानते' ऐसा आक्षेप और २-अन्यथा प्रतिपादन
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