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________________ खण्ड-४, गाथा-४, केवलद्वयभेदाभेदविमर्श ४४७ अस्य च सूत्रस्य किलायमर्थः - केवली सम्पूर्णबोधः, णं इति प्रश्नोऽभ्युपगमसूचकः । ' भन्ते' इति भगवन् ! इमां रत्नप्रभामन्वर्थाभिधानां पृथ्वीमाकारैः समनिम्नोन्नतादिभिः प्रमाणैः दैर्घ्यादिभिः हेतुभिः अनन्तानन्तप्रदेशिकैः स्कन्धः संस्थानैः = परिमण्डलादिभिः परिवारैः = घनोदधिवलयादिभिः 'जं समयं णो तं समयं' इति च ' कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे' (पा० २-३-५) इति द्वितीया अधिकरणसप्तमीबाधिका, तेन यं समयं जानाति = यदा जानातीत्यर्थः ' णो तं समयं पश्यतीति न तदा पश्यतीति भावः । 5 विशेषोपयोगः सामान्योपयोगान्तरितः सामान्योपयोगश्च विशेषोपयोगान्तरितः तत्स्वाभाव्यादिति प्रश्नार्थः । = Jain Educationa International = उत्तरं पुनः 'हंता गोयमा !'... इत्यादिकं प्रश्नानुमोदकम् । 'हंता' इत्यभिमतस्यामन्त्रणम् 'गौतम' इति गोत्रामन्त्रणम् । प्रश्नानुमोदनार्थं पुनस्तदेव सूत्रमुच्चारणीयम् । हेतुप्रश्नस्य चात्र सूत्रे उत्तरम् - 'साकारे से णाणे अणागारे से दंसणे' () = साकारं विशेषावलम्बि अस्य केवलिनो ज्ञानं भवति - अनाकारमतिक्रान्तविशेषं सामान्यालम्बि दर्शनम्। न चानेकप्रत्ययोत्पत्तिरेकदा निरावरणस्यापि तत्स्वाभाव्यात् । न हि चक्षुर्ज्ञानकाले 10 श्रोत्रज्ञानोत्पत्तिरुपलभ्यते। न चाऽऽवृतत्वात् तदा तदनुत्पत्तिः, स्वसमयेऽप्यनुत्पत्तिप्रसंगात् । ततो युगपद[ केवली णं • सूत्र का पूर्वपक्षाभिमत व्याख्यान ] इस सूत्र का अर्थ यह है केवली यानी सम्पूर्णज्ञानी, णं शब्द प्रश्नद्योतक एवं स्वीकारसूचक है । 'भन्ते' पद का अर्थ है हे भगवंत ! सार्थक नामवाली इस रत्नप्रभा पृथ्वी को सम - नीचा - ऊँचा इत्यादि आकार, दीर्घतादि प्रमाण, अनन्तानन्तप्रदेशवाले स्कन्धात्मक ( उपादान ) हेतु, परिमण्डलादि संस्थान 15 तथा घनोदधि आदि वलय ( इन सब ) प्रकारों से । 'जं समयं णो तं समयं यहाँ अधिकरणार्थक सप्तमी को बाध कर के, 'कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे' (= काल और मार्ग के साथ अत्यन्त संयोग के रहते हुए ) इस पाणिनिसूत्र के द्वारा द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त हुई है। अतः 'जं समयं जानाति' वाक्यांश का अर्थ होगा 'जब जब जानता है' । 'णो तं समयं पश्यति' का भाव यह होगा कि 'उस समय देखता नहीं' । उपयोग का स्वभाव ही ऐसा होने से, विशेषोपयोग सामान्योपयोग से व्यवहित रहता है एवं सामान्योपयोग 20 विशेषोपयोग से अन्तरित रहता है। यह हुआ प्रश्न का अर्थ | — - = [ उत्तरसूचक सूत्र का व्याख्यान ] हंता ! गोयमा... इत्यादिसूत्र के द्वारा प्रश्न की अनुमोदना के साथ उत्तर प्रस्तुत किया गया लिये प्रयुक्त होता | 'गौतम' शब्द गोत्र है । 'हंता' यह पद स्वजन के आमन्त्रण = सम्बोधन के के उल्लेखपूर्वक अपने पट्टशिष्य का संबोधन है। प्रश्न के अनुमोदन के लिये प्रश्नसूत्र का फिर से 25 उच्चारण किया गया है। से केणट्टेणं.... यह सूत्र हेतुप्रश्न सूचक है जिस का उत्तर भी इसी सूत्र दिया गया है। ( क्यों केवली जिस समय जानते हैं उस समय देखते नहीं हैं ? इस हेतुप्रश्न का उत्तर यह है – ) 'साकारे से णाणे अणागारे से दंसणे' साकार यानी विशेषावलम्बि, ऐसा उस केवली का ज्ञान होता है, अनाकार यानी विशेषविनिर्मुक्त, ऐसा सामान्यावलम्बि दर्शन होता है । स्वभावतः उपयोगों में कालभेद ] निरावरण केवली को भी एक साथ अनेक उपयोग का प्रादुर्भाव नहीं होता, क्योंकि उपयोग का स्वभाव ही ऐसा है । चाक्षुषज्ञान काल में श्रावण ज्ञान की उत्पत्ति कभी नहीं होती । 'आवरण होने = For Personal and Private Use Only 30 www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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